Tuesday, November 25, 2014

वो बारह प्राणी

बहार आई दहलीज़ तक मेरी

कल रात
और मैं सोता रहा, सोता रहा

हवा खटखटाती रही 
दर रात भर
और मैं सोता रहा, सोता रहा

घटा बरसी
ख़िज़ा बरसी
पत्ते सारे बिछ गए
नोच-नोच के डाल से
पल-छिन सारे छीन गए
और मैं सोता रहा, सोता रहा

अब माथे हाथ दे के मैं सोचूँ 
ये क्या हुआ, कैसे हुआ

ये क़ानून-क़ायदे, ये नियम
पतझड़ का होना भी ज़रूरी
काम-काज-मेहनत के साथ
मेरा सोना भी ज़रूरी

हर बार यही होता रहा
संविधान का हवाला देता रहा
वो बारह प्राणी तुम्हारे ही थे
तुम्हारे नगर के, तुम्हारे हितैषी 

अब माथे हाथ दे के मैं सोचूँ 
ये क्या हुआ, कैसे हुआ

बहार आई दहलीज़ तक मेरी
कल रात
और मैं सोता रहा, सोता रहा

25 नवम्बर 2014
सिएटल | 513-341-6798


Saturday, November 22, 2014

रामपाल जैसे कई स्वामी पकड़वाने हैं

हर तरफ़ अब यही अफ़साने हैं
रामपाल जैसे कई स्वामी पकड़वाने हैं

कितनी चतुराई है इन बाबाओं में
पढ़े-लिखे भी लट्टू हो जाए
लाखों-करोड़ों का धन दे-दे के
सोने-चाँदी के महल बनवाए
आश्रम कहलाए जहाँ ऐ-सी पाखाने हैं

नित्यानंद, निर्मल हो या हो रोमपद स्वामी कोई
नेक नहीं लगते इनके इरादे हैं
जब-जब भीड़-भाड़ इकट्ठा करते हैं
धन जोड़ने के हथकण्डे अपनाते हैं
रास्ते बाबाओं के अब जाने हैं

इक धक्का सा लगा है भक्तों को
जैसे-जैसे सच सामने आए हैं
जिनको सद्गुरू समझा था इनने
धर्म के सौदागर नज़र आए हैं
अधर्मियों को अब सबक़ सिखलाने हैं

(कैफ़ी आज़मी से क्षमायाचना सहित)
22 नवम्बर 2014
सिएटल । 513-341-6798

Sunday, November 16, 2014

न तुम होते, न हम होते

न तुम होते, न हम होते

तो फिर कहाँ ग़म होते

'गर होता कोई घर भी कहीं
तो हम न यहाँ सनम होते

दल होता, दलदल होते
झगड़े बड़े विषम होते

हाँ में हाँ मिलाते मगर
ख़्वामख़ाह आपको वहम होते

न रूठता राहुल, न मनता कभी
तो यार भी यारो कम होते

16 नवम्बर 2014
सिएटल | 513-341-6798

Saturday, November 15, 2014

बरस बीते, जीवन बीता

बरस बीते, जीवन बीता
मैंने सिर्फ़ लिखी कविता

रोज़मर्रा की भागदौड़ में 
आगे बढ़ने की होड़-होड़ में 
कथित उत्तरदायित्व के बोझ-बोझ में 
बाप ने था बेटे को भूला
बेटे ने था बाप को भूला

मैंने-तुमने-सबने फूँका
कर्तव्यों का ही चूल्हा फूँका
इनसे बड़ी न कोई पूजा
हाथों ने चरणों को छुआ
कर-कमलों ने दिया आशीष पूरा

जीवन का क्रम यूँही है चलता
फल से ही है बीज निकलता
बीज से ही फल फूलता-फलता
रंग बदलते मौसम हैं आते
पर पहली सी कहाँ रंगत ला पाते

जीवन का निस्तार यही है
विधि का विधान अकाट्य यही है
जो चल पड़ा वो प्राप्य नहीं है
गीता कहे पहने चोला वो दूजा
मुझे लगे वो धोखा व झूठा

15 नवम्बर 2014
(बाबूजी का पहला जन्मदिन, उनके जाने के बाद)
सिएटल | 513-341-6798

Tuesday, November 11, 2014

होता सु-नाता तो सुनाता कोई

होता सु-नाता तो सुनाता कोई
लोरी गाकर सुलाता कोई

तान छेड़े, ताने न मारे
ऐसे मुझे अपनाता कोई

मेहंदी लगे हाथों की खुशबू
सूंघ लेता मैं जो बू लाता कोई

न ग़म होता, न ग़मी होती
हँसता कोई, हँसाता कोई

तलो तले मेले में आज
गोदी में यूँ तुतलाता कोई

11 नवम्बर 2014
सिएटल । 513-341-6798

छू लेने दो मोदीजी के चरणों को

छू लेने दो मोदीजी के चरणों को
कुछ और नहीं भगवान हैं ये
भाजपा के ही नहीं ये नेता हैं
पूरे भारत की शान हैं ये

ख़बरों को पढ़ के न भ्रमित होना
इनमें कहीं कोई खोट नहीं
इन जैसा नहीं कोई दानी है
कर देते सब कुछ दान हैं ये

अच्छों को बुरा साबित करना
राहुल की पुरानी आदत है
इसकी कविता में कोई दम नहीं
कहते बड़े-बड़े विद्वान हैं ये

(साहिर से क्षमायाचना सहित)
11 नवम्बर 2014
सिएटल । 513-341-6798

Sunday, November 9, 2014

छू लेने दो मोदीजी को झाड़ू

छू लेने दो मोदीजी को झाड़ू
कुछ और नहीं हैं नाटककार  हैं ये
इन महाशय को हमने चुना है
चूना लगाने के हक़दार हैं ये

गुंडों को नेता बनाना
वोटर की पुरानी आदत है
मोदीजी को भी न संत समझ
माना कि नहीं गुनहगार हैं ये

मत पा के हुए ये मतवाले
मस्ती का नज़ारा तुम देखो
भेड़ और बकरी की टोली है
कहते जिसे सरकार हैं ये

(साहिर से क्षमायाचना सहित)
9 नवम्बर 2014
सिएटल । 513-341-6798

Friday, November 7, 2014

कब किसने किसको घर जाते देखा

कब किसने किसको घर जाते देखा
सबने सबको बस इधर आते देखा

कोई होता घर पर तो घर भी होता
बेटा-बहू सबको हमने कमाते देखा

सब के सब हैं अपनी धुन में मगन
न सुनते किसी को न सुनाते देखा

जहाँ हो अपने, वहीं लगता है मन
मगर किसने किसको अपनाते देखा

बड़ा सा घर है और कोई बड़ा नहीं है
बच्चे बढ़े, तो उन्हें भी कदम बढ़ाते देखा

7 नवम्बर 2014
सिएटल । 513-341-6798

Monday, November 3, 2014

डूबता सूरज

डूबता सूरज सुंदर है
झड़ते पत्ते लगते प्रियकर हैं
ये कैसे 'एम्बुलेंस चेज़र' हैं हम
कि मरणासन्न को देख खुलते 'शटर' हैं

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डूबता सूरज
डूबता रहा
डूबता गया
और फिर डूब ही गया

लोग कैमरे क्लिक करते रहें
प्रियजन पीठ दिखाकर 'पोज़' देते रहें

किसी ने उसे डूबने से न रोका
किसी ने हाथ बढ़ाकर उठाने का न सोचा

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हम सब ज्ञानी-ध्यानी हैं
ज्ञान-विज्ञान की खान हैं

वो डूबा कहाँ?
वो डूबा नहीं

सब माया है
छलावा है
आज गया है
कल फिर आएगा
बस कपड़े 'लॉन्ड्री' में डाले हैं
कल नए कपड़े पहन के आएगा

और नहीं आया
तो और खुशियाँ मनाओ
कि उसे मोक्ष प्राप्त हो गया
सार बंधनों से वो मुक्त हो गया

3 नवम्बर 2014
सिएटल । 513-341-6798

परिणाम चाहे जो भी हो


कल अमरीका में मध्यावधि चुनाव है. मुझे अपनी 10 साल पुरानी लिखी कविता याद आ गई.

डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते, हमें क्या
ये मुल्क नहीं मिल्कियत हमारी
हम इन्हें समझे, हम इन्हें जाने
ये नहीं अहमियत हमारी

तलाश-ए-दौलत आए थे हम
आजमाने किस्मत आए थे हम
आते हैं खयाल हर एक दिन
जाएंगे अपने घर एक दिन
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
बदलेगी नहीं नीयत हमारी

ना तो हैं हम डेमोक्रेट
और ना ही हैं हम रिपब्लिकन
बन भी गये अगर सिटीज़न
बन न पाएंगे अमेरिकन
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
छुपेगी नहीं असलियत हमारी

न डेमोक्रेट्स के प्लान
न रिपब्लिकन्स के उद्गार
कर सकते हैं
हमारा उद्धार
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
पूछेगा नहीं कोई खैरियत हमारी

हम जो भी हैं
अपने श्रम से हैं
हम जहाँ भी हैं
अपने दम से हैं
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
काम आयेगी बस काबिलियत हमारी

फूल तो है पर वो खुशबू नहीं
फल तो है पर वो स्वाद नहीं
हर तरह की आज़ादी है
फिर भी हम आबाद नहीं
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
यहाँ लगेगी नहीं तबियत हमारी