Wednesday, November 30, 2016

चाँदनी चाँद से होती है, सितारों से नहीं

चाँदनी चाँद से होती है, सितारों से नहीं 

पर्स भी सौ से भरे हैं, हज़ारों से नहीं 


वो जीवन नहीं जीवन जिसमें असफलता ही हो

सीख मिलती है जो हार से, वो उपहारों से नहीं


यदि हों सम्बन्ध तो ऐसे कि विषमताएँ हों

ताकि लेन-देन में लगे आप गुनहगारों से नहीं 


हम भी हो सकते थे आपकी जंग में शामिल

गई ख़ुद्दारी नहीं और बने चाटुकारों से नहीं 


चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले

उम्मीद--ख़ुशबू--जानाँ शाहकारों से नहीं 


राहुल उपाध्याय | 1 दिसम्बर 2016 | दिल्ली 









Tuesday, November 29, 2016

तुम्हें भूलाने में ज़माने लगे हैं

तुम्हें भूलाने में 

ज़माने लगे हैं

मन्दिरों से नज़रें 

चुराने लगे हैं


कोई भी मूरत

तेरी ही सूरत

दुआ करने से

कतराने लगे हैं


कोई भी सूरत

तेरी ही मूरत

सलाम करने से

घबराने लगे हैं


सूरत-मूरत

ढाँचा है प्यारे

पीर-पैग़म्बर 

समझाने लगे हैं


हज़ारों सपने

उधड़े-उधाड़े

पैबन्द कितने

सिरहाने लगे हैं


राहुल उपाध्याय | 30 नवम्बर 2016 | रतलाम 





Monday, November 28, 2016

बस चलना ही सफ़र नहीं होता

बस चलना ही सफ़र नहीं होता

शस्त्र भाँजना ही समर नहीं होता

कूद पड़ो रक़्स--इश्क़ में 

कर गुज़रने का कोई पहर नहीं होता


डूबती है, उबरती है

बस तैरती है मछली

सिर्फ़ हाथ-पाँव मारने ही से

कोई अमर नहीं होता


सफ़र की क़ीमत थकन से आँको

छालों का, काँटों का

पसीने की बूँदों का

किसी भी बैंक में लॉकर नहीं होता


क्यूँ करते हो रश्क देखकर 

इमारतें बुलन्द किसी की

यूँही नहीं होती हासिल मंज़िले

हौसला दिल में 'गर नहीं होता


बहाने वाले बहाने करेंगे

कि होते हम भी कामयाब

'गर होती कश्ती पुख़्त

या समंदर बवंडर नहीं होता


29 नवम्बर 2016

सैलाना | 001-425-445-0827

tinyurl.com/rahulpoems 









Sunday, November 27, 2016

हर सुबह की शाम होती है

हर सुबह की शाम होती है

ज़िन्दगी यूँही तमाम होती है


ब्याहता का सुख राधा ने देखा

और ब्याही सीता बदनाम होती है


चलो चलें, कहीं और चलें

पत्थर की लकीरें इधर आम होती हैं


पत्थर के सनम, पत्थर के खुदा

अब किससे यहाँ दुआ-सलाम होती है


'गर होता कोई कॉमा, तो रूकते भी हम

पढ़ते-पढ़ते तुम्हें, सुबह शाम होती है


28 नवम्बर 2016

सैलाना | 001-425-445-0827

tinyurl.com/rahulpoems 







ये माना मेरी जाँ कालाधन दबा है

तौबा तौबा ये धन, ये धन का ग़ुरूर 

मोदी के सामने सर फिर भी झुकाना ही पड़ा

कैसा कहते थे जाएँगे, जाएँगे मगर 

उन्होंने इस तरह पुकारा बैंक जाना ही पड़ा


ये माना मेरी जाँ कालाधन दबा है

लगाव इससे इतना मगर किसलिए है

जो रूपये थे तुम्हारे, तुम्हें मिल गए हैं

जो नहीं थे तुम्हारे, फुर्र हो गए हैं

जड़ों से क्यूँ तुम्हारे महल हिल गए हैं


जो खाता खोले, बदल ना सके वो

जो खाता था पहले, खा ना सके वो

क़रीब और आओ, क़दम तो बढ़ाओ

बढ़े जो कर संग्रहण तो कर किसलिए है


नज़ारे भी देखे, इशारे भी देखे

क़तारों में लगते हमारे भी देखे

नाम क्या चीज़ है, इज़्ज़त क्या है

सोने चाँदी की हक़ीक़त क्या है

लाख चिपके कोई दौलत से

मोदी के सामने दौलत क्या है

वे मैखाने जा के, क्यूँ सागर उठाएँ

नशीले जनमत का पहर किस लिए है


तुम्हीं ने जीताया, तुम्हीं ने बनाया 

दिल्ली की गद्दी पे तुम्हीं ने बिठाया

जिस शहर से भी ये गुज़र जाए

शहरवासी पे निखार जाए

रूठ जाए ये तो पिट जाए पाकिस्तान 

और जो ये हँस दे तो बहार जाए

इनके क़दम से है देश में सफ़ाई 

अगर पसन्द नहीं तो ये सदर किस लिए है


(कैफी आज़मी से क्षमायाचना सहित)

27 नवम्बर 2016

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