सपने जब सच होते हैं, कितने फीके लगते हैं
अंगूर जो हम खा नहीं पाते, कितने मीठे लगते हैं
अंगूर जो हम खा नहीं पाते, कितने मीठे लगते हैं
बाद में जा कर वो कितने टेढ़े हो जाते हैं
शुरू-शुरू में जो हमको सीधे लगते हैं
हरियाली और हरित क्रांति की क्यों है इतनी धूम
मुझको तो लाल-पीले ही फूल अच्छे लगते हैं
मंज़िल तक आते-आते लड़खड़ा गए पाँव
और उनका ये उलाहना कि हम पीए लगते हैं
प्रेसिडेंट और पी-एम हैं नाम के हुक्काम
कर्मों से तो वे केवल पी-ए लगते हैं
सिएटल,
15 सितम्बर 2011