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Friday, April 12, 2013

प्यार का पहला ख़त पढ़ने में वक़्त तो लगता है

प्यार का पहला ख़त
पढ़ने में वक़्त तो लगता है
दिल की धड़कन को
थमने में वक़्त तो लगता है


क्या कोई कहीं बात छुपी है?
क्या पढ़ना मैं भूल गया?
पंक्तियों के बीच में
पढ़ने में वक़्त तो लगता है


कैसे खींची होगी उसने
माथे पे वो बिंदी काली?
नए-पुराने प्रतीकों को
सुलझने में वक़्त तो लगता है


मेरे नाम का "हु" है ऐसा
टेढ़ा-मेढ़ा और चुटीला
अपने-आप को दर्पण में
निरखने में वक़्त तो लगता है


जाके कह दूँ बात किसी से
या रख लूँ दिल ही के अंदर?
तरह-तरह की उमंगों को
दबने में वक़्त तो लगता है


ता-उम्र रखूँ मैं साथ इसे
या कर दूँ भस्म आज इसे?
ऐसे-वैसे प्रश्नों से
निपटने में वक़्त तो लगता है


काया हो या चिट्ठी कोई
एक दिन जल के राख भी होगी
सुर और सुगंध की यादों को
मिटने में वक़्त तो लगता है


(हस्तीमल हस्ती से क्षमायाचना सहित)
12 अप्रैल 2013
सिएटल ।
513-341-6798