Tuesday, February 22, 2011

आप से पहले

इस रचना का श्रेय विदेश मंत्री एस. एम. कृष्णा और राजा को जाता है.

आप से पहले
आप से ज्यादा
गधा आज तक नहीं मिला
इतना क्लू-लेस
इतना घोंचू
बंदा आज तक नहीं मिला

इसको स्पीच कहे या कागज़ का टुकड़ा
जो किसी और ने पढ़ा था
इनको अनपढ़ कहे या पढ़े-लिखे अनपढ़
जिनको रिज़र्वेशन मिला था
इन्हीं लोगों को हम चुन रहे हैं
एक भी ढंग का आज तक नहीं मिला


इनको मंत्री कहे या रिश्वत के बोरे
जिनके मुँह हमेशा खुले हैं
जब चाहे तब ये देखो
नष्ट करने में देश को तुले हैं
इन गुंडों को पीट के रख दे
ऐसा डंडा आज तक नहीं मिला

सिएटल
22 फ़रवरी 2011
(रवीन्द्र जैन से क्षमायाचना सहित)

Wednesday, February 16, 2011

इससे पहले कि कोई किताब लिखे


इससे पहले कि कोई किताब लिखे
चलो मैं ही एक कविता लिख दूँ
कि
ऑल इंडिया रेडियो छोड़कर
क्यों सारा देश राडिया सुन रहा है?
क्यों रानी बाहर बैठी है
और राजा भुगत रहा है?

यह सब इसलिए कि
लूटने को तो हर कोई लूटे
लेकिन ये कुछ ज्यादा उलीच रहे हैं?

इससे पहले कि आप मुझे गूगले
मैं अपना परिचय खुद ही दे दूँ
मैं हूँ एक अदद एन-आर-आई
जो देश छोड़-छाड़ के बैठा है
जब-जब देश गर्त में जाता
तब-तब शांति पाता है
कितना दूरदर्शी था मैं देखो
पुष्टीकरण हो जाता है

इससे पहले कि कोई मुझसे पूछे
मैं खुद से पूछ रहा हूँ
जिस संवाद का कोई निष्कर्ष नहीं हो
उस संवाद का प्रयोजन क्या है?

सिएटल,
16 फ़रवरी 2011

Saturday, February 12, 2011

प्याज खाने की ज़िद न करो



प्याज खाने की ज़िद न करो
आज खाने की ज़िद न करो
हम तो मर जाएंगे
हम तो बिक जाएंगे
ऐसी मांगें किया ना करो


तुम ही सोचो ज़रा, क्यूँ न रोके तुम्हें
बदबू आती है जब प्याज खाते हो तुम
तुमको अपनी क़सम जान-ए-जां
बात इतनी मेरी मान लो
प्याज खाने की ज़िद न करो


खाने की मेज पर व्यंजन कई हैं मगर
इक यहीं चीज़ है जो नापाक है
इसको खाकर मेरी जान-ए-जां
मुख अपना दूषित न करो
प्याज खाने की ज़िद न करो

राम ने कृष्ण ने प्याज खाई नहीं
बाबा रामदेव ने भी ये पकाई नहीं
कल की हो 'गर फ़िक्र जान-ए-जां
रोक लो आज इन हाथ को
प्याज खाने की ज़िद न करो

 
सिएटल

12 फ़रवरी 2011

(फ़ैयाज़ हाशमी से क्षमायाचना सहित)

Friday, February 4, 2011

प्याज मांगा है तुम्हीं से


समाचार - देश प्याज से परेशान - से प्रेरित हो कर लिखी गई एक रचना:

प्याज मांगा है तुम्हीं से
न इंकार करो
पाँच दे दो ज़रा आज तो
न इंकार करो


कितनी हसीं है रात
दुल्हन बनी है रात
उबले हुए दाल-भात
प्याज जरा छीलो तो
सलाद तैयार करो
न इंकार करो


पहले भी इन्हें काटा
पहले भी तुम रोए
आज आँसू मगर
बहते हैं तो
बह जाने दो
इन्हें स्वीकार करो
न इंकार करो


कितनी बुरी ख़बर है
और सरकार बेख़बर है
तख़्ता पलटे अगर
तो तख़्ता पलट जाने दो
मोर्चा तैयार करो
न इंकार करो

सिएटल
4 फ़रवरी 2011
(शिवकुमार सरोज से क्षमायाचना सहित. इसे सुनने के लिए, यहाँ क्लिक करें)

Tuesday, February 1, 2011

बहुत दिन हुए एक कविता लिखी थी

बहुत दिन हुए एक कविता लिखी थी
जिसमें मुझे एक सूरत दिखी थी


आज देखा तो कुछ भी नहीं है
अक्षर हैं, हस्ताक्षर नहीं है
शीर्षक सही, तिथि भी वही है
मन की लेकिन वो परिस्थिति नहीं है


कागज़ बदलूँ, कुछ फ़ाँट सुधारूँ
क्या करूँ जिससे उसे उभारूँ?


उपमाओं की कोई कमी नहीं है
अलंकारों की भी भीड़ लगी है
किसी भी रस का अभाव नहीं है
फिर भी मन में भाव नहीं है


शब्द बदलूँ, कुछ पर्याय सुधारूँ
क्या करूँ जिससे उसे उभारूँ?


दुनिया चलती दो पदों से
इसमें तीन पद पर गात नहीं है
तरह-तरह के हथकंडे लेकिन
आता कुछ भी हाथ नहीं है


सरस्वती पूजूँ, किसे पुकारूँ?
क्या करूँ जिससे उसे उभारूँ?




सिएटल
1 फ़रवरी 2011