Tuesday, April 26, 2016

हम हैं तो ख़ुशियाँ हैं


घड़े भरकर
जब कोई जल लाता है
तो वो जल 
किसी नदी, बावड़ी, या कुएँ का ही होता है
सागर का नहीं 

सागर
अथाह है
वृहद है
विशाल है
लुभाता है
आकर्षित करता है 
हाथ में हाथ लेकर
किनारे-किनारे चलने को
बाध्य करता है

लेकिन
प्यास
नहीं बुझा पाता है

उसके लिए
वाष्पीकरण आवश्यक है
मेघ बनते हैं
बरसते हैं
पर्वतों की श्रंखलाओं पर
खेत-खलिहानों पर
नदी, बावड़ी, कुओं पर

फूल खिलते हैं
रंग चटखते हैं
पक्षी चहकते हैं

सारी घाटी ख़ुशियों से सराबोर हो जाती है

यही जल-चक्र जीवन का स्रोत है
इसी जल-चक्र में जन्म-मरण है
यही आत्मा-परमात्मा का दर्पण है

और हम हैं कि 
जन्म-मरण के चक्र से भयभीत हैं
जबकि इसके बिना प्रकृति रंगहीन है

हम अभिशप्त नहीं 
सहायक हैं

हम
जब भी आए
क्यूँ न 
कोई पुष्प खिलाए, बाग़ महकाए
किसी सूखे दरख़्त की प्यास बुझाए

मेघ हैं
तो बगिया है
हम हैं
तो ख़ुशियाँ हैं

26 अप्रैल 2016


Sunday, April 24, 2016

पानी पड़ जाए आँख में तो रोना आता है


पानी पड़ जाए आँख में तो रोना आता है
आँख है एक भगोना जिसे भिगोना आता है

हम जैसे ग़रीबों की हालत तो देखो
न नींद आती है, न सोना आता है

न डूबता है कोई, न डूबोता हूँ किसीको
पौन इंच की आँख में सिर्फ़ ख़्वाब बोना आता है

धरती है गोल और गोलाई भी ऐसी
कि हर किसी के हाथ कोना आता है

हम हैं अलग-थलग और अलग-थलग ही रहेंगे
बिरले ही हैं जिन्हें एक होना आता है

भगोना = बर्तन 
पौन = 3/4th

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Thursday, April 7, 2016

काफ़ी हैं क़ाफ़िले


काफ़ी हैं क़ाफ़िले 
और कम भी हैं अब गिले
फिर भी मैं किसीके साथ नहीं 
और कोई मेरे साथ नहीं

कमाया बहुत इन हाथों ने
पर लगा कुछ भी हाथ नहीं 
कहने को है बहुत कुछ मगर
कहने को कुछ खास नहीं

जो दिख रहा है, वो देख लो
जो नहीं दिख रहा है, वो सोच लो
मैं हूँ परवाना, या हूँ शोख़ लौ (*)
जो समझ आए वो सोख लो
मैं हूँ शालिग्राम (#), या हूँ तुलसीदल?
जो भी हूँ, बस हूँ अभिशप्त

*
शोख़ लौ:
वही
जिसने
चिर-काल से 
हमें चिर-आग दी
हर किसी को एक आस दी
एक को दूसरे की ओर आकर्षित किया
जन्म दिया, प्राण फूँके
और
इससे पहले कि पहला बुझे
और जलकर ख़ाक हो
नया दीया
जला दिया

#
शालिग्राम:
भगवान जब पत्थर हुए तो पूज्य हुए
अहिल्या जब पत्थर हुई तो त्यक्त हुई
जो पूज्य हुए, वे पत्थर रहे
जो तज दी गई, वो तर गई
रामचरण से तर गई

शोख़ = bright 
7 अप्रैल 2016
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Sunday, April 3, 2016

जड़ें हों गहरी


जड़ें हों गहरी
तो पत्तियाँ हरी हो जाती हैं
सच है कि झूठ
पता नहीं 
पर कविता में लिख दो
तो बात बड़ी हो जाती है

किसे फ़ुरसत है कि
बात की जड़ तक जाए?
हाँ, इसी बहाने
कईयों की पी-एच-डी हो जाती है

नसीब मुनासिब न हो
तो क्या-क्या नहीं हो जाता है
जो आपकी थी
किसी और की हो जाती है

भक्ति में शक्ति है
भक्ति में मुक्ति है
तभी तो 
शबरी मेज़बान
और अहिल्या बरी हो जाती है

हरि का नाम
हर हाल में लेते रहो
तो कहते हैं
ज़िंदगी सुनहरी हो जाती है

3 अप्रैल 2016
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Saturday, April 2, 2016

मल और माला


जब भी निकलता हूँ टहलने
होता हूँ मैं ख़ाली हाथ
और
दूसरों के हाथ होती है एक थैली

कोई कम करता है अपने पाप को
तो कोई राहत देता है अपने श्वान को

कोई कट जाता है दुनिया-जहान से
तो कोई जुड़ जाता है अपने श्वान से

सोचता हूँ
क्या दोनों थैलियाँ कभी
एक हाथ होंगी?
मल और माला
साथ होंगी?

नहीं-नहीं 
ऐसा नहीं हो सकता
ऐसा सोचना भी पाप है

ईष्ट is ईष्ट 
And waste is waste
And never the twain shall meet. 

2 अप्रैल 2016
सिएटल | 425-445-0827
With apologies to Rudyard Kipling for altering his famous line from 
http://poetry.about.com/od/poemsbytitleb/l/blkiplingballadeastandwest.htm