Friday, December 28, 2012

दु:ख का सुख

धमाके की खबर जैसे ही दिखी थी
तुरत-फ़ुरत एक कविता लिखी थी
लेकिन फिर भी देर हो चुकी थी
मुझसे पहले कुछ कवि लिख चुके थे

वाह-वाह सबकी लूट चुके थे
बहती गंगा में हाथ धो चुके थे
दु:ख को सुख में बदल चुके थे

दुनिया सारी उम्मीद पर टिकी है
कहीं न कहीं तो फिर विपदा गिरेगी
एक न एक दिन इसे भुनवा के रहूंगा
रेडियो, टी-वी सब ऑन रखूंगा
खबर मिलते ही टूट पड़ूंगा

विस्फोट होगा, धमाका होगा
मेरे लिए एक तमाशा होगा
मेरे अमर हो जाने का
सबसे अच्छा बहाना होगा

सबसे पहले मैं ही भेजूँगा
सब की बधाई पा के रहूंगा
देखो न कितने रंग भरे हैं
खून, चीथड़े, भेड़िये जैसे शब्द रचे हैं
कुछ से दहाड़ रहा है वीर-रस
तो कुछ से टपक रही है करुणा
अपनी संवेदनशीलता का
अपने काव्य शिल्प का
सबसे लोहा मनवा के रहूंगा
दु:ख को सुख में बदल कर रहूंगा

राष्ट्र-गान लिखा जा चुका है
वीर-रस का मौसम नहीं है
कोई युद्ध भी तो होता नहीं है
यही तो मौका बस एक बचा है
जो सारे राष्ट्र को अपील करेगा
बच्चा-बच्चा इसे 'फ़ील' करेगा
लिख कर इसे मैं अमर बनूंगा
दु:ख को सुख में बदल कर रहूंगा

Wednesday, December 26, 2012

मरे मिले करोड़

जितनी लम्बी चादर हो
उतने ही पांव पसार
यहीं पाठ पढ़ाया गया
जीवन में हर एक बार
पाई पाई गिन के
जब जब पाई पगार

दुनिया के हैं ढंग निराले
रीत इसकी बेजोड़
जब तक आदमी ज़िंदा रहे
रहे पांव सिकोड़
एक दिन जब जाने लगे
नाते सारे तोड़
बाजे-गाजे से विदा होए
लम्बी चादर ओड़

आत्मा जब तक साथ थी
लेते थे मुख मोड़
पार्थिव शरीर के सामने
खड़े हैं हाथ जोड़
यहीं दुनिया का दस्तूर है
यहीं इसका निचोड़
जीवन का कुछ मोल नहीं
मरे मिले करोड़

Tuesday, December 25, 2012

ऐ दुनिया, तेरे ग़मों का अहसानमंद हूँ मैं

ऐ दुनिया, तेरे ग़मों का अहसानमंद हूँ मैं
कि वस्ल के बाद भी उन्हें बेहद पसंद हूँ मैं


न होते ग़म, न वो ढूँढते खुशियाँ
ग़मों के कोट पे लगा पैबंद हूँ मैं


लेना सांस मैं छोड़ पाता नहीं हूँ
क्या करूँ वक़्त का बड़ा पाबंद हूँ मैं


न सपूत किशन, न राधा बहू है
मैं नंद सा नहीं, रहता सानंद हूँ मैं


लिखने को लिख सकता था शिवसेना पे मैं
पर मंदबुद्धि नहीं, बहुत अकलमंद हूँ मै.


25 दिसम्बर 2012
सिएटल । 513-341-6798

Monday, December 24, 2012

क्रिसमस

छुट्टीयों का मौसम है
त्योहार की तैयारी है
रोशन हैं इमारतें
जैसे जन्नत पधारी है

कड़ाके की ठंड है
और बादल भी भारी है
बावजूद इसके लोगों में जोश है
और बच्चे मार रहे किलकारी हैं

यहाँ तक कि पतझड़ की पत्तियां भी
लग रही सबको प्यारी हैं
दे रहे हैं वो भी दान
जो धन के पुजारी हैं

खुश हैं खरीदार
और व्यस्त व्यापारी हैं
खुशहाल हैं दोनों
जबकि दोनों ही उधारी हैं

भूल गई यीशु का जन्म
ये दुनिया संसारी है
भाग रही उसके पीछे
जिसे हो-हो-हो की बीमारी है

लाल सूट और सफ़ेद दाढ़ी
क्या शान से संवारी है
मिलता है वो माँल में
पक्का बाज़ारी है

बच्चे हैं उसके दीवाने
जैसे जादू की पिटारी है
झूम रहे हैं जम्हूरें वैसे
जैसे झूमता मदारी है

Friday, December 21, 2012

व्यक्ति पूजा

पार्टी नहीं जीती, जीते हैं मोदी
व्यक्ति पूजा की फ़सल फिर से गई है बो दी
लोकतंत्र की क़बर ऐसे गई है खोदी

गाँधी, नेहरु
माया, लालू
पूजते हैं कुछ
तो कुछ कहते इन्हें चालू
धीरे-धीरे आस्था इन सब में हमने खो दी
लोकतंत्र की क़बर ऐसे गई है खोदी

पिछले साठ साल से
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
परिवार के लोग ही
चढ़े सत्ता की सीढ़ी
डाल दी कभी बेटी तो कभी बेटे की गोदी
लोकतंत्र की क़बर ऐसे गई है खोदी

Saturday, December 15, 2012

अपने-पराए

होता आतंकवादी तो
अभी तक बेड़ा कूच कर गया होता
और दूर-दराज का एक मुल्क
नेस्तनाबूद हो गया होता

उस मुल्क के धर्म की
उस मुल्क के आचार-विचार की
उस मुल्क के संस्कार की
कड़े शब्दों में भर्त्सना कर  दी गई होती

लेकिन
चूँकि
मामला अपने ही घर का है
सब बगले झाँक रहे हैं
और
सेकंड अमेंडमेंट की दुहाई दे रहे हैं

दूसरों को बुरा-भला कहना जितना आसान है
उतना ही मुश्किल है खुद को सुधारना

15 दिसम्बर 2012
सिएटल । 513-341-6798

Wednesday, December 12, 2012

श्रद्धांजली

रहते थे विदेश में
विदेश में पाया सम्मान

शंका नहीं है कौशल की
करता हूँ उन्हें प्रणाम
रच कर यह कविता - जिसमें उनका नाम

Tuesday, December 11, 2012

था, है और होगा

आप थे
तो
ख़्वाब थे
पुरज़ोर
मिज़ाज़ थे


अब आप नहीं है तो?
ख़्वाब सब सराब है
शराब सिर्फ़ आब है
गीत नि:शब्द साज़ हैं


आप के वियोग में
कहकशाँ भटक गए
आप ही के सोग में
दिन में तारें दिख गए


न नींद थी, न चैन था
न नींद है, न चैन है
न था तो मुझको चैन था
न है तो मैं बेचैन हूँ


माना कि वक्त सख्त है
सब्ज़ बाग ज़र्द है
पर हर वक्त का भी वक्त है
और होता एक दिन खत्म है


बाग जो उजड़ गए
पत्ते जो बिखर गए
दीप जो झुलस गए
एक दिन जलेगे वो
एक दिन मिलेंगे वो
एक दिन खिलेंगे वो


आएगा बसंत फिर
हो जाएगा बस अंत फिर
हमारे इस बिछोह का
योग के वियोग का
प्यार के विरोध का


11 दिसम्बर 2012
सिएटल । 513-341-6798

Saturday, December 1, 2012

लहू


हम और आप तो बस बात करते हैं पौरूष की
और उधर उनका सामना लहू से हर माह होता है

जब मिटते हैं सितारे टिमटिमाते हज़ारों
तब जाके कहीं पैदा आफ़ताब होता है

ये बनने की मिटने की हैं बातें कुछ इतनी अजीब
कि समझाए न समझ आए, बस खुद-ब-खुद अहसास होता है

जो करते हैं प्यार, वो होते हैं खास
उन्हीं के लिए तो लहूलुहान सूरज सुबह-ओ-शाम होता है

था उसमें भी कुछ, था मुझमें भी कुछ
वर्ना ऐसे ही थोड़े किसी का साथ किसी के साथ होता है

24 नवम्बर 2012
सिएटल । 513-341-6798