Wednesday, March 27, 2013

न holiday है न holy day है

न holiday है न holy day है
बस ठंडा-ठंडा Wednesday है


होली तो हमारी कब की हो ली
पिछले weekend ही खेल ली होली


चन्द्र-तिथि में क्या रक्खा है?
चढ़ते सूरज को सबने मथा है


हम भी इसके पीछे आए थे घर से
लोक-लाज सब ताक पे धर के


कि एक दिन हम आराम करेंगे
धन बहुतेरा तब तक जोड़ ही लेंगे


लेकिन वो दिन अब कब आएगा यारो?
वक़्त यूँही गुज़र जाएगा यारो


और अगले साल भी हम यही कहेंगे

न holiday है न holy day है
बस ठंडा-ठंडा Monday है


27 मार्च 2013
सिएटल ।
513-341-6798

Friday, March 22, 2013

'बर्फ़ी ला' बसंत

बर्फ़ीली हवाओं ने किया
ऐसा कुछ तंग
कि बसंत के शुरू होते ही
हो गया उसका अंत


बर्फ़ छोड़ बर्फ़ी खाए
प्रभु, करो कुछ प्रबंध


फ़ायर प्लेस छोड़-छाड़
फ़ायर करें रंग


पिचकारी भर-भर के हम
रंगें तन-बदन


होली पे हिम नहीं
हो हर हर से मिलन


भांग पिएं, भांग चढ़ें
न रंग में हो भंग


खाए-पीए मौज करें
रहें मस्त मगन


22 मार्च 2013
सिएटल ।
513-341-6798

Thursday, March 21, 2013

रंगभेद

भौहें काली
बाल सफ़ेद
खून लाल-लाल है
कौन कहता है कि
ईश्वर की सत्ता में
होता नहीं रंगभेद है?


गुलाब गुलाबी
गेंदा पीला
और कमल का रंग सफ़ेद है
कौन कहता है कि
ईश्वर की सत्ता में
होता नहीं रंगभेद है?


गोरे-काले बादल सारे
होते भिन्न-भिन्न है
काले बादल
भर दें पोखर
भरते ओर-छोर है
कौन कहता है कि
ईश्वर की सत्ता में
होता नहीं रंगभेद है?


-x-x-x-

कौन कहता है कि
ईश्वर की सत्ता में
होता रंगभेद है?


अंदर देखो
अंदर झांको
जिसका न कोई रंग है न रूप है
वही तो वास्तव में यारो
ईश्वर का स्वरूप है


सतह से हटो
तह में जाओ
तो पाओगे कि
इलेक्ट्रॉन और प्रोटॉन का
न कोई रंग है न रूप है
और वही तो यारो
तुममें
मुझमें
कण-कण में मौजूद है


उन्हीं से जुड़-जुड़ के
बना हम सब का स्वरूप है


वो तो आँख की कमज़ोरी है
जो रोशनी के मिश्रण को
दे देती कई नाम और रूप है
वरना
अंदर देखो
अंदर झांको
तो बस कोरी-कोरी धूप है


कौन कहता है कि
ईश्वर की सत्ता में
होता रंगभेद है?


21 मार्च 2013
सिएटल ।
513-341-6798

Monday, March 18, 2013

मन की खुराफ़ातें

कितनी सारी ई-मेल्स
बिन पढ़े ही
दफ़्न हो जाती है
अगली स्क्रीन में खिसक जाती है
बोल्ड की बोल्ड ही रह जाती है
और
कुछ ई-मेल्स
हज़ारों बार चैक करने पर भी
नहीं आती है


-x-x-x-

कैसी होगी वो?
क्या आज भी वो खिलखिला के हँसती है?
पाँव में पाजेब पहनती है?
बॉलकनी में आ के रूकती है?
बिल्ली को गोद में लेती है?
धूप में आँख मलती है?


नहीं नहीं
ये सब मन की खुराफ़ातें हैं
वक़्त के साथ सब बदल जाते हैं
घुंघरू टूट जाते हैं
बॉलकनी बंद हो जाती है
बिल्ली कहीं खो जाती है
धूप कुरूप हो जाती है


-x-x-x-

कितनी सारी ई-मेल्स
बिन पढ़े ही
दफ़्न हो जाती है
अगली स्क्रीन में खिसक जाती है
बोल्ड की बोल्ड ही रह जाती है
और
कुछ ई-मेल्स
हज़ारों बार चैक करने पर भी
नहीं आती है


18 मार्च 2013
सिएटल ।
513-341-6798

Sunday, March 17, 2013

मेरी हथेली का तिल

मेरी हथेली का तिल
उतना ही बड़ा है
जितनी कि तुम
(उम्र में!)


लेकिन
ये
वक्त के साथ
बदला नहीं

न रूप में
न रंग में
न ही किसी और ढंग में

आज भी
जब कोई बात कहता हूँ
तो सुन लेता है
पलट के जवाब नहीं देता है


जब चाहूँ
इसे देखूँ न देखूँ
जब चाहूँ
इसे चूमूँ न चूमूँ
न बुरा मानता है
न मनमुटाव करता है


बस एक बात की कमी है
अपने आप कुछ नहीं करता है
सारी बाज़ी
मेरे हाथ में दे रक्खी है


17 मार्च 2013
सिएटल ।
513-341-6798

Thursday, March 14, 2013

जहाँ धुआँ है वहाँ आग भी होगी

वोट डलें. आग लगी. धुआँ हुआ.
और इस कविता का जन्म हुआ
===============================


जहाँ धुआँ है वहाँ आग भी होगी
जले हुए पुरजों की भरमार भी होगी


किसने किस का नाम लिखा था
किसने किस का साथ दिया था
कौन जानता था कि
ये बातें खतरनाक भी होगी


जिन्हें लिखने में एक वक़्त लगा था
जिन्हें लिखते वक़्त एक स्वप्न जगा था
कौन जानता था कि
पलक झपकते ही वे राख भी होगी


आग-पानी से ये रिश्ता है कैसा
एक जलाए, एक गलाए
कौन जानता था कि
जीवनदाता के हाथो ज़िंदगी बर्बाद भी होगी


हम और आप बने फिरते हैं
न जाने किस तैश में तने रहते हैं
जबकि सब जानते हैं कि
देह एक-न-एक दिन ख़ाक भी होगी


14 मार्च 2013
सिएटल ।
513-341-6798
 

Tuesday, March 5, 2013

अगरबत्ती जली है

अगरबत्ती जली है
तो राख भी होगी
अगर बत्ती जली है
तो रात भी होगी


है दुनिया मेरी
कुछ ऐसी ही यारो
कि आज शह है
तो कल मात भी होगी


जन्नत, जहन्नुम
या दोजख है जो भी
सोचता हूँ इनसे
कभी मुलाकात भी होगी


आँखों में किसी की
कोई कब तक रहेगा
सुबह होते ही
आँखें साफ़ भी होगी


मुझको यकीं था
उसको नहीं
कि ज़ुल्फ़ों में उसकी
मेरी शाम भी होगी


5 मार्च 2013
सिएटल ।
513-341-6798

Saturday, March 2, 2013

बोल हैं कि वेद की ऋचाएँ?

बोल हैं कि वेद की ऋचाएँ?
समझने लगूँ तो समझ न आए
बोलने वाली बस इतराए
इधर-उधर मैं भटकूँ हाए
कोई तो हो जो सार बताए


लगूँ गले या तकूँ दिन रात?
'मीट' खाऊँ या खाऊँ सलाद?
बनूँ अंग्रेज़ या बनूँ प्रहलाद?
अगले जन्म की बाट जोहूँ
या इसी जन्म में होगा मिलाप?


हैं ऋचाएँ कितनी उलझी-उलझी
भगवान जाने कितनी सच्ची, कितनी झूठी
इनको पढ़ के न बढ़े उत्साह
लाखों लोग जो हैं बेरोज़गार
होता नहीं उनका उद्धार


कर्क रोग मधुमेह बीमारी
क्या हरेगी ये हर व्यथा हमारी?
क्या इनमें हैं कोई ऐसे 'फ़ंडे'
जिन्हें पढ़ के हम गाड़ दे झंडे?
दुनिया में हम नाम कमाए
और हर्षित-हर्षित हरि गुण गाए?



2 मार्च 2013
सिएटल । 513-341-6798

====================
मीट = meat
फ़ंडे =  interesting facts or concepts