Friday, December 9, 2011

कभी पलकों पे आँसू हैं

कभी पलकों पे आँसू हैं, कभी लब पे शिकायत है
मगर ऐ अमरीका फिर भी मुझे तुझ से मोहब्बत है

जो आता है, वो रोता है, ये दुनिया सूखी-साखी है
अगर है ऐश तो घर पे, जहाँ मनती दीवाली है
मगर इण्डिया नहीं जाना, अभी बनना सिटीज़न है
कभी पलकों पे आँसू हैं...

जो कमाता हूँ, वो खप जाए, बड़ी थोड़ी कमाई है
शेयर पे हाथ भी मारे, मगर पूँजी गवाई है
बने मिलियन्स थे ये सपने, मगर अब कर्ज़ किस्मत है
कभी पलकों पे आँसू हैं...

गराज में कार है, लेकिन मैं दफ़्तर जाऊँ बस लेकर
स्कूल के बच्चे की माफ़िक़, लदे बस्ता मेरी पीठ पर
फ़र्क बस इतना कि माँ नहीं, बीवी बाँधती टिफ़िन है
कभी पलकों पे आँसू हैं...

(निदा फ़ाज़ली से क्षमायाचना सहित)
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इण्डिया = India = भारत
सिटीज़न = citizen
मिलियन्स = millions
गराज = garage
बस = bus
बस्ता = backpack
टिफ़िन = tiffin/lunch

Monday, November 28, 2011

कहीं दूर जब पासपोर्ट बन जाए

कहीं दूर जब पासपोर्ट बन जाए
जल्दी से उसमें वीसा लगाए
दूर-दराज के देश में जा के
कोई सपनों के दीप जलाए

कहीं तो ये दिल कभी जुड़ नहीं पाते
कहीं से निकल आए जन्मों के नाते
भली सी लड़की से ब्याह रचा के
ग्रीन-कार्ड की प्यास बुझाए
कहीं दूर जब...

कभी यूँहीं जब हुई ले-ऑफ़ की बातें
भर आई बैठे-बैठे बस यूँहीं आँखें
कहाँ पे आ के, फ़ंसे हम हाए
अधेड़ उम्र कुछ समझ न पाए
कहीं दूर जब...

कभी तो ये दिल कहे, चलो घर जाए
फिर कहे, अभी रूके, अभी और कमाए
कमा-कमा के बरस हैं गुज़रे
जाने की फिर भी न टिकट कटाए
कहीं दूर जब...

(योगेश से क्षमायाचना सहित)

Wednesday, October 12, 2011

करवा चौथ

भोली बहू से कहती हैं सास
तुम से बंधी है बेटे की सांस
व्रत करो सुबह से शाम तक
पानी का भी न लो नाम तक

जो नहीं हैं इससे सहमत
कहती हैं और इसे सह मत

करवा चौथ का जो गुणगान करें
कुछ इसकी महिमा तो बखान करें
कुछ हमारे सवालात हैं
उनका तो समाधान करें

डाँक्टर कहें
डाँयटिशियन कहें
तरह तरह के
सलाहकार कहें
स्वस्थ जीवन के लिए
तंदरुस्त तन के लिए
पानी पियो, पानी पियो
रोज दस ग्लास पानी पियो

ये कैसा अत्याचार है?
पानी पीने से इंकार है!
किया जो अगर जल ग्रहण
लग जाएगा पति को ग्रहण?
पानी अगर जो पी लिया
पति को होगा पीलिया?
गलती से अगर पानी पिया
खतरे से घिर जाएंगा पिया?
गले के नीचे उतर गया जो जल
पति का कारोबार जाएंगा जल?

ये वक्त नया
ज़माना नया
वो ज़माना
गुज़र गया
जब हम-तुम अनजान थे
और चाँद-सूरज भगवान थे

ये व्यर्थ के चौंचले
हैं रुढ़ियों के घोंसले
एक दिन ढह जाएंगे
वक्त के साथ बह जाएंगे
सिंदूर-मंगलसूत्र के साथ
ये भी कहीं खो जाएंगे

आधी समस्या तब हल हुई
जब पर्दा प्रथा खत्म हुई
अब प्रथाओ से पर्दा उठाएंगे
मिलकर हम आवाज उठाएंगे

करवा चौथ का जो गुणगान करें
कुछ इसकी महिमा तो बखान करें
कुछ हमारे सवालात हैं
उनका तो समाधान करें

Thursday, September 15, 2011

सपने जब सच होते हैं

सपने जब सच होते हैं, कितने फीके लगते हैं
अंगूर जो हम खा नहीं पाते, कितने मीठे लगते हैं


बाद में जा कर वो कितने टेढ़े हो जाते हैं
शुरू-शुरू में जो हमको सीधे लगते हैं

हरियाली और हरित क्रांति की क्यों है इतनी धूम
मुझको तो लाल-पीले ही फूल अच्छे लगते हैं

मंज़िल तक आते-आते लड़खड़ा गए पाँव
और उनका ये उलाहना कि हम पीए लगते हैं

प्रेसिडेंट और पी-एम हैं नाम के हुक्काम
कर्मों से तो वे केवल पी- लगते हैं



सिएटल,

15 सितम्बर 2011

Wednesday, September 14, 2011

पहेली 37


आज हिंदी दिवस है. इस सुअवसर पर प्रस्तुत  हैं दो पहेलियाँ.
 
#1
है रियल पर हम कहें xxxx
बलि चढ़े ताकि कोई मरे x xxx
 
#2
अंग्रेज़ मांगे xxxx
बनाऊँ एक, xx xx
 
कैसे सुलझाए? मदद चाहिए? चिंता करें. ऐसी 36 और पहेलियां हैं जो कि हल की जा चुकी हैं. आप पहले उन्हें पढ़ लें. धीरे-धीरे आपको इन पहेलियों का सारा भूगोल-इतिहास समझ में जाएगा और इन्हें हल करने में कोई कठिनाई नहीं होगी.
 
फिर भी न बात बने तो इन चार पंक्तियों की तरफ़ नज़र फेरें

हे हनुमान, राम, जानकी
रक्षा करो मेरी जान की

भूखें हैं तेरे बन्दें
भूखों को तू बन दे

Sunday, August 21, 2011

अजन्मे का जन्मदिन


जो अजन्मा है उसका जन्मदिन क्यों मनाते हो तुम?
और जन्मदिन है तो पुण्यतिथि भी अवश्य ही होगी
याद आए तो कभी बताना मुझे

सिएटल
21 अगस्त 2011

Saturday, August 20, 2011

झाड़-फानूस के कमरों में



पी-आर है मगर प्यार नहीं
पोर्ट्रैट है मगर परिवार नहीं
झाड़-फानूस के कमरों में
बच्चों की किलकार नहीं

शिरडी में लाखों दे देंगे
लेकिन भाई को देंगे हज़ार नहीं
झाड़-फानूस के कमरों में
अपनों से सरोकार नहीं

अपनी सामर्थ्य का दम भरते हैं
सुनते किसी की बात नहीं
झाड़-फानूस के कमरों में
संतों का सत्कार नहीं

मरता है कोई तो मरने दो
इनका ये संग्राम नहीं
झाड़-फानूस के कमरों में
चढ़ता किसी को बुखार नहीं

20 अगस्त 2011
सिएटल

================
पी-आर = PR = Public Relations
पोर्ट्रैट = Portrait
झाड़-फानूस = Chandelier

Tuesday, August 16, 2011

गली-गली में शोर है


गली-गली में शोर है
नेता सारे चोर हैं
करने को हम कुछ नहीं करते
बस देते देश छोड़ है

आज मिला है एक सुअवसर हमको
आज हो रही भोर है
फिर क्यूँ यारो हम हैं सोते
चलो लगाते जोर है

धरना-अनशन क्या कर लेगा
कहते कुछ मुँहजोर हैं
उनसे हमें हैं बस इतना कहना
यह शस्त्र बड़ा बेजोड़ है

गाँधी ने हमें दी आज़ादी
अब आया हमारा दौर है
फिर क्यूँ यारो हम हैं सोते
चलो लगाते जोर है

करने से ही कुछ होता यारो
क्यूँ ना करने की होड़ है
कर्म किए जाकर्म किए जा
यहीं गीता का निचोड़ है

जब जब जनता एक हुई है
हुआ नतीजा पुरजोर है
फिर क्यूँ यारो हम हैं सोते
चलो लगाते जोर है

Sunday, August 14, 2011

ऐ मेरे वतन के लोगो

ऐ मेरे वतन के लोगो, तुम खूब कमा लो दौलत
दिन रात करो तुम मेहनत, मिले खूब शान और शौकत
पर मत भूलो सीमा पार अपनो ने हैं दाम चुकाए
कुछ याद उन्हे भी कर लो जिन्हे साथ न तुम ला पाए

ऐ मेरे वतन के लोगों, जरा आँख मे भर लो पानी
जो करीब नहीं हैं उनकी जरा याद करो कुरबानी

कोई सिख कोई जाट मराठा, कोई गुरखा कोई मदरासी
सरहद पार करने वाला हर कोई है एक एन आर आई
जिस माँ ने तुम को पाला वो माँ है हिन्दुस्तानी
जो करीब नहीं हैं उनकी जरा याद करो कुरबानी

जब बीमार हुई थी बच्ची या खतरे में पड़ी कमाई
दर दर दुआएँ मांगी, घड़ी घड़ी की थी दुहाई
मन्दिरों में गाए भजन जो सुने थे उनकी जबानी
जो करीब नहीं हैं उनकी जरा याद करो कुरबानी

उस काली रात अमावस जब देश में थी दीवाली
वो देख रहे थे रस्ता लिए साथ दीए की थाली
बुझ गये हैं सारे सपने रह गया है खारा पानी
जो करीब नहीं हैं उनकी जरा याद करो कुरबानी

न तो मिला तुम्हे वनवास ना ही हो तुम श्री राम
मिली हैं सारी खुशीयां मिले हैं ऐश-ओ-आराम
फ़िर भला क्यूं उनको दशरथ की गति है पानी
जो करीब नहीं हैं उनकी जरा याद करो कुरबानी

सींचा हमारा जीवन सब अपना खून बहा के
मजबूत किए ये कंधे सब अपना दाँव लगा के
जब विदा समय आया तो कह गए कि सब करते हैं
खुश रहना मेरे प्यारो अब हम तो दुआ करते हैं
क्या माँ है वो दीवानी क्या बाप है वो अभिमानी
जो करीब नहीं हैं उनकी जरा याद करो कुरबानी

तुम भूल न जाओ उनको इसलिए कही ये कहानी
जो करीब नहीं हैं उनकी जरा याद करो कुरबानी

Friday, August 12, 2011

राखी आए, राखी जाए

साधन बढ़े, संसाधन बड़े हैं
फिर भी मन में कुछ ऐसे रोड़े पड़े हैं
कि
न बहन राखी भेजे, न भाई उपहार दिलाए
कोरी बधाई से दोनों काम चलाए

स्काईप-फ़ेसबुक पे करें लम्बी बातें
लेकिन लिफ़ाफ़े में रोली-अक्षत रखी न जाए
राखी आए, राखी जाए
पर्व की खुशबू कहीं न आए

बहन भाई से हमेशा दूर रही है
घर-संसार में मशगूल रही है
लेकिन इतनी भी कभी लाचार नहीं थी
कि भाई का पता भी पता नहीं है
सिर्फ़ एस-एम-एस से काम चलाए
घिटपिट-घिटपिट बटन दबाए

पर्व की उपेक्षा
ये करती पीढ़ी
चढ़ रही है
उस राह की सीढ़ी
जिस राह पे डोर का मोल नहीं है
तीज-त्योहर का कोई रोल नहीं है
संस्कृति आखिर क्या बला है
इस पीढ़ी को नहीं पता है
बस पैसा बनाओ, पैसा बटोरो
किसी अनुष्ठान के नाम पे काम न छोड़ो
24 घंटे ये सुई से भागे
कभी रुक के न मन में झांके
कि इस दौड़ का आखिर परिणाम क्या होगा?
जब होगी जीवन की शाम, क्या होगा?

सिएटल,
12 अगस्त 2011

Friday, August 5, 2011

कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है

कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है
कि जैसे stock market गिराया गया है मेरे लिए
तू अबसे पहले हज़ारों में बिक रही थी कहीं
तूझे cheaper बनाया गया है मेरे लिए
कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है

कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है
कि ये crash, ये correction मेरी किस्मत है
ये collapsing prices हैं मेरी खातिर
ये volatality और ये uncertainty मेरी किस्मत है
कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है

कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है
कि जैसे तू split होती रहेंगी उम्र भर यूंही
बढ़ेगी तेरी earnings per share यूंही
मैं जानता हूं कि तू dot-com है मगर यूंही
कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है

कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है
कि जैसे मिल गया IPO कौड़ियों में कहीं
दो trades में ही मालामाल हो गया हूँ मैं
सिमट रही है तमाम दौलत मेरे खाते में
कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है

(साहिर से क्षमायाचना सहित)

Thursday, August 4, 2011

दिन पर दिन, दीन दीन होते रहें

दिन पर दिन, दीन दीन होते रहें
पकड़ के मीन, मीन खोते रहें

कमाया मगर गवाँया समझ
जो फल न सके बीज बोते रहें

चश्मे को नैनों ने चश्मा किया
टप-टप टीप-टीप रोते रहें

स्टेशन कई आए मगर
उतरें नहीं बस सोते रहें

अब क्या किसी से कोई कहानी कहे
न वो दादा रहें, न वो पोते रहें

हमने तो की मोहब्बत मगर
दाग समझ वो धोते रहें

सिएटल
4 अगस्त 2011

Monday, July 18, 2011

तुम सोचती होगी

तुम सोचती होगी
कि मेरा बुखार उतर गया होगा
तुम्हारा सोचना वाजिब भी है
पिछले आठ महीनों से मैंने तुम्हें फोन जो नहीं किया
और ना ही जन्मदिन की बधाई दी
या नव-वर्ष की

लेकिन
शायद तुम यह नहीं जानती
कि जब दर्द हद से गुज़र जाता है
तो दर्द ही दवा बन जाता है

अब मुझे
न तुम्हारी
न तुम्हारी आवाज़ की
न तुम्हारी तस्वीर की
किसी की भी ज़रूरत नहीं है

अब मैं हूँ तुम
और तुम हो मैं

सुबह से लेकर शाम तक
शाम से लेकर सुबह तक
तुम
हर पल
मेरे साथ हो

हाँ, बाबा, हाँ
सच, और पूरा सच
देखो,
तुम्हारा अहसास
कोई नाक पे रखा चश्मा तो है नहीं
कि रात को सोते वक़्त उसे उतार के रख दूँ!

और हाँ
मैं तुम्हें भूला नहीं
और न ही भूला सकता हूँ
लेकिन गाहे-बगाहे फिर भी याद ज़रूर कर लेता हूँ
उस बुद्धू की तरह
जो चश्मा पहने हुए है
फिर भी चश्मा ढूँढता रहता है

18 जुलाई 2011
सिएटल

Saturday, July 16, 2011

आदमी थे हम

आदमी थे हम, संग होने लगे हैं
खून को रंग मान, रंग धोने लगे हैं

वारदातें होती हैं, होती रहेंगी
कह के ज़मीर अपना खोने लगे हैं

अब क्या किसी से कोई कुछ कहेगा
सब अपनी ही लाश खुद ढोने लगे हैं

पढ़-लिख के इतने सयाने हुए हम
कि स्याही में खुद को डुबोने लगे हैं

बाहों में किसी की जब बिलखता है कोई
बंद कर के टी-वी हम सोने लगे हैं

16 जुलाई 2011
सिएटल
=================
संग = पत्थर

Wednesday, July 13, 2011

क़हर

पहले भी बरसा था क़हर
अस्त-व्यस्त था सारा शहर
आज फ़िर बरसा है क़हर
अस्त-व्यस्त है सारा शहर

बदला किसी से लेने से
सज़ा किसी को देने से
मतलब नहीं निकलेगा
पत्थर नहीं पिघलेगा
जब तक है इधर और उधर
मेरा ज़हर तेरा ज़हर

बुरा है कौन, भला है कौन
सच की राह पर चला है कौन
मुक़म्मल नहीं है कोई भी
महफ़ूज़ नहीं है कोई भी
चाहे लगा हो नगर नगर
पहरा कड़ा आठों पहर

न कोई समझा है न समझेगा
व्यर्थ तर्क वितर्क में उलझेगा
झगड़ा नहीं एक दल का है
मसला नहीं आजकल का है
सदियां गई हैं गुज़र
हुई नहीं अभी तक सहर

नज़र जाती है जिधर
आँख जाती है सिहर
जो जितना ज्यादा शूर है
वो उतना ज्यादा क्रूर है
ताज है जिनके सर पर
ढाते हैं वो भी क़हर

आशा की किरण तब फूटेंगी
सदियों की नींद तब टूटेंगी
ताज़ा हवा फिर आएगी
दीवारे जब गिर जाएंगी
होगा जब घर एक घर
न तेरा घर न मेरा घर

Monday, July 11, 2011

फ़ेसबुक

दुश्मनी मेरी इससे कोई जाती नहीं है
लेकिन फ़ेसबुक की दुनिया मुझे भाती नहीं है

दीवार पे लिखो, दीवार पे बाँचो
यूँ दीवारों से बातें की जाती नहीं है

एक नहीं, दो सौ नौ फ़्रेंड्स हैं मेरे
कहने को दोस्त, लेकिन कोई साथी नहीं है

विडियो और फोटो में कुछ ऐसा फ़ंसा
कि शब्दों की सही वर्तनी अब आती नहीं है

फ़ेसबुक की दुनिया एक सूखे पेड़ सी है यारो
जिसमें शाख ही शाख है कोई पाती नहीं है

11 जुलाई 2011
सिएटल

Friday, June 10, 2011

मुर्गी चाहिए या अंडे?

अपना धन
दूर देश की बैंकों में
रंग बदल के बैठा है

आओ चलो
कुछ करें
देशवासियों ने आंदोलन छेड़ा है

धन क्या है?
धन तो हाथ का मैल है
आएगा
और जाएगा

लेकिन
उन लोगों का क्या होगा
जो देश छोड़-छाड़ के बैठे हैं

लाख बुलाने पर भी
वसुधैव कुटुम्बुकम का
राग अलापते रहते हैं

सिएटल । 513-341-6798
10 जून 2011

Thursday, June 2, 2011

नामों का सच

नाम हिलेरी, न तनिक हिले री
नाम अगाथा, लिखे गाथा पे गाथा
इन सबको देख के घूमा है माथा

कब, कहाँ कोई क्या कर जाए?
नाम के विपरीत रास रच जाए

नागपुर में नाग बसते नहीं हैं
कानपुर में कान पकते नहीं हैं

पटना में लड़की पटती नहीं है
विदिशा में दिशा मिलती नहीं है

संतरों को खा के संत रोते नहीं है
मंजु के सर में मन जू नहीं है

बाईट की दुनिया बा-ईंट नहीं है
मौसीकी से मौसी का रिश्ता नहीं है

चार पाई में मिलती चारपाई नहीं है
सैलाना निवासी सैलानी नहीं है

रसगुल्लों से यारो रस गुल नहीं है
और गुलाब-जामुन जो है वो फल-फूल नहीं हैं

जब से पता चला नामों का सच ये
रहता हूँ शीला-सुशीला से बच के
जाता नहीं जहाँ होती हो पूजा
रुकता नहीं जहाँ दिखती है श्रद्धा
सत्यम का काम ठुकराता सविनय हूँ
नामों को ठोक-पीट के ही उठाता कदम हूँ

सिएटल
2 जून 2011
513-341-6798
============
मौसीकी=music
सैलानी=tourist

Friday, May 27, 2011

मतवाले मत वाले

जो मत वाले है वे मतवाले हैं
जिनकी अकल पे पड़े ताले हैं
तभी तो जो राजा बनता है
रानी का होता चमचा है

हम बुद्धिजीवी भी कुछ खास नहीं
लगती हरी कोई घास नहीं
जब भी कोई राजा बनता है
उसमें है खोट हमें लगता है

सब राम भरोसे,सब काम परोसे
सतकाम में न कोई फ़ंसता है
कोई करना भी 'गर चाहे कभी
तो सारा जहाँ उसपे हँसता है

क्या होगा उस देश का यारो
जिस देश का लाल उसे खुद ठगता है
सूँघ के सोने-चाँदी के टुकड़े
इस देश, उस देश भटकता है

आदर्श के नाम पे कोई है ही नहीं
सिर्फ़ आदर्श घोटाला दिखता है
हैं भारत पे हम भार सभी
नित स्वार्थ में रत हर एक बंदा है

सिएटल । 513-341-6798
27 मई 2011

Friday, May 13, 2011

राम नाम सत्य है

जानेवाले जाते-जाते क्यूँ जूते छोड़ जाते हैं?
और जो जुते हुए हैं उनसे क्यों नाते तोड़ जाते हैं?

जो जन्मे थे कल
वही जन्मेंगे आज
कहने की बात है
कोई करे न विश्वास

करे न विश्वास
करे तर्क हज़ार
सच है अगर
तो बताए भाई साब
कहाँ गए राम
और कहाँ श्याम आज?

कैसे कोई उनसे कहे
देखो संग-तराश
भिन्न-भिन्न भित्त बनाए
लेकिन वही हाड़-माँस

वही हाड़-माँस
वही फ़ेफ़ड़ों में साँस

जो गया है वो गया नहीं
जो आया है वो आया नहीं
काल के ग्रास में
कोई भी समाया नहीं

सब यहीं थे, यहीं हैं
सत्य सिर्फ़ यही है

सिएटल, 13 मई 2011

Friday, April 22, 2011

ये कैसा प्रजातंत्र है ये कैसा जनतंत्र

ये कैसा प्रजातंत्र है, ये कैसा जनतंत्र
जनता इससे खुश नहीं, कहे षड़यंत्र
कहे षड़यंत्र, हुई इतनी ये तंग
उठाने लगे संग जो कर करें सतसंग

करें सतसंग, करने लगे अनशन
नाम जिनका अन्ना, नहीं छू रहें थे अन्न
नहीं छू रहें थे अन्न, हुई जनता प्रसन्न
चलो गाँधी फिर से आए, डरें मनमोहन

डरें मनमोहन, हटी हर अड़चन
बच्चा-बच्चा खुश हुआ, हुए अभिभावक मगन
हुए अभिभावक मगन, पूरे होगे अब स्वपन
पढ़-लिख के राजा बेटा कमाएगा ये धन

कमाएगा ये धन, नहीं करेगा गबन
देश में ही रहेगा, नहीं होगा बे-वतन
नहीं होगा बे-वतन, सब होगे सुखी-सम्पन्न
भारत में ही रह के भारत माँ का नाम करेगा रोशन

सिएटल, 22 अप्रैल 2011

Friday, April 8, 2011

यह शस्त्र बड़ा बेजोड़ है

गली-गली में शोर है
नेता सारे चोर हैं
करने को हम कुछ नहीं करते
बस देते देश छोड़ है

आज मिला है एक सुअवसर हमको
आज हो रही भोर है
फिर क्यूँ यारो हम हैं सोते
चलो लगाते जोर है

धरना-अनशन क्या कर लेगा
कहते कुछ मुँहजोर हैं
उनसे हमें हैं बस इतना कहना
यह शस्त्र बड़ा बेजोड़ है

गाँधी ने हमें दी आज़ादी
अब आया हमारा दौर है
फिर क्यूँ यारो हम हैं सोते
चलो लगाते जोर है

करने से ही कुछ होता यारो
क्यूँ ना करने की होड़ है
कर्म किए जा, कर्म किए जा
यहीं गीता का निचोड़ है

जब जब जनता एक हुई है
हुआ नतीजा पुरजोर है
फिर क्यूँ यारो हम हैं सोते
चलो लगाते जोर है

सिएटल, 7 अप्रैल 2011

Sunday, April 3, 2011

धोनी ने धो के सबको जीती ये पाली है


न होली है, न दीवाली है
फिर भी मस्त सवाली है
बरसों के बाद हमने
जीत जो पा ली है

जीते हैं दम से हम
ये जीत न जाली है
धोनी ने धो के सबको
जीती ये पाली है

बरसों हम हारे लेकिन
कभी दी न गाली है
बड़े ही नाज़ों से हमने
टीम ये पाली है

न हिंदू न मुस्लिम है कोई
न कोई बंगाली है
हर बंदा है भारतवासी
जिसने ट्रॉफी उठा ली है

आओ मिलके हम गाए
ये धुन निराली है
जीतने की हो धुन जिसमें
नहीं लौटता वो खाली है

सिएटल, 4 अप्रैल 2011

============
पाली = 1. inning 2. raised
धुन = 1. tune 2. intense devotion

Saturday, March 26, 2011

आड़ी-तिरछी लकीरें

ये क्या दिन भर आड़ी-तिरछी लकीरें खींचते रहते हो

न कोई पढ़ता है

न कोई समझता है

और न ही कोई दाद देता है



न कोई रूप है

न कोई स्वरूप है

और न ही किसी का पेट भरता है

न किसी की प्यास बुझती है

और न ही किसी की कोई ज़रूरत पूरी होती है



अगर सरल शब्दों में कहूँ तो

यह नितांत व्यर्थ की प्रक्रिया है

जिसका कोई प्रयोजन नहीं है



सोचता हूँ

अगर भगवान भी अपनी बीवी की सुनता

तो आज आसमान में आड़े-तिरछे बादल न होते



सिएटल, 26 मार्च 2011

Friday, March 25, 2011

दुनिया नई बसा लेते हैं लोग


इससे पहले कि दिया बुझे, दिया नया जला लेते हैं लोग

दिया तो दिया, दुनिया नई बसा लेते हैं लोग



डरते हैं पतन न कहीं जाए झलक

चेहरे पे चेहरा लगा लेते हैं लोग



यूँ तो आने-जाने की किसी को फ़ुरसत नहीं

लेकिन बात-बात पे महफ़िल जमा लेते हैं लोग



कभी इसकी तो कभी उसकी

जैसे भी हो खिचड़ी पका लेते हैं लोग



भरती का शेर राहुल से बनता नहीं

बनाने को बनाने वाले बना लेते हैं लोग



सिएटल, 25 मार्च 2011

Tuesday, February 22, 2011

आप से पहले

इस रचना का श्रेय विदेश मंत्री एस. एम. कृष्णा और राजा को जाता है.

आप से पहले
आप से ज्यादा
गधा आज तक नहीं मिला
इतना क्लू-लेस
इतना घोंचू
बंदा आज तक नहीं मिला

इसको स्पीच कहे या कागज़ का टुकड़ा
जो किसी और ने पढ़ा था
इनको अनपढ़ कहे या पढ़े-लिखे अनपढ़
जिनको रिज़र्वेशन मिला था
इन्हीं लोगों को हम चुन रहे हैं
एक भी ढंग का आज तक नहीं मिला


इनको मंत्री कहे या रिश्वत के बोरे
जिनके मुँह हमेशा खुले हैं
जब चाहे तब ये देखो
नष्ट करने में देश को तुले हैं
इन गुंडों को पीट के रख दे
ऐसा डंडा आज तक नहीं मिला

सिएटल
22 फ़रवरी 2011
(रवीन्द्र जैन से क्षमायाचना सहित)

Wednesday, February 16, 2011

इससे पहले कि कोई किताब लिखे


इससे पहले कि कोई किताब लिखे
चलो मैं ही एक कविता लिख दूँ
कि
ऑल इंडिया रेडियो छोड़कर
क्यों सारा देश राडिया सुन रहा है?
क्यों रानी बाहर बैठी है
और राजा भुगत रहा है?

यह सब इसलिए कि
लूटने को तो हर कोई लूटे
लेकिन ये कुछ ज्यादा उलीच रहे हैं?

इससे पहले कि आप मुझे गूगले
मैं अपना परिचय खुद ही दे दूँ
मैं हूँ एक अदद एन-आर-आई
जो देश छोड़-छाड़ के बैठा है
जब-जब देश गर्त में जाता
तब-तब शांति पाता है
कितना दूरदर्शी था मैं देखो
पुष्टीकरण हो जाता है

इससे पहले कि कोई मुझसे पूछे
मैं खुद से पूछ रहा हूँ
जिस संवाद का कोई निष्कर्ष नहीं हो
उस संवाद का प्रयोजन क्या है?

सिएटल,
16 फ़रवरी 2011