आदमी थे हम, संग होने लगे हैं
खून को रंग मान, रंग धोने लगे हैं
वारदातें होती हैं, होती रहेंगी
कह के ज़मीर अपना खोने लगे हैं
अब क्या किसी से कोई कुछ कहेगा
सब अपनी ही लाश खुद ढोने लगे हैं
पढ़-लिख के इतने सयाने हुए हम
कि स्याही में खुद को डुबोने लगे हैं
बाहों में किसी की जब बिलखता है कोई
बंद कर के टी-वी हम सोने लगे हैं
16 जुलाई 2011
सिएटल
=================
संग = पत्थर
Saturday, July 16, 2011
आदमी थे हम
Posted by Rahul Upadhyaya at 4:23 PM
आपका क्या कहना है??
5 पाठकों ने टिप्पणी देने के लिए यहां क्लिक किया है। आप भी टिप्पणी दें।
Labels: news
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
5 comments:
वारदातें होती हैं, होती रहेंगी
कह के ज़मीर अपना खोने लगे हैं
अब क्या किसी से कोई कुछ कहेगा
सब अपनी ही लाश खुद ढोने लगे हैं....लाजवाब पंकितयां... मन को टीस देने वाली....
आपकी गजलम में एक शेर जोडने की घृष्टता कर रहा हूं
बदलते बदलते अब इंसां न रह गए हम
लोग इसी को तरक्की का नाम देने लगे हैं
शेख साहब, शेर जोड़ने का शुक्रिया.. वैसे काफ़िया मेल नहीं खा रहा है.. लेकिन आपके जज़बात की कद्र करता हूँ.
वन्दना जी - पढ़ने का शुक्रिया
सत्य वचन ..
वारदातें होती हैं, होती रहेंगी
कह के ज़मीर अपना खोने लगे हैं
दिग्विजय सिन्ह पढे तो कुछ शर्म आए उन्हे
Post a Comment