दुश्मनी मेरी इससे कोई जाती नहीं है
लेकिन फ़ेसबुक की दुनिया मुझे भाती नहीं है
दीवार पे लिखो, दीवार पे बाँचो
यूँ दीवारों से बातें की जाती नहीं है
एक नहीं, दो सौ नौ फ़्रेंड्स हैं मेरे
कहने को दोस्त, लेकिन कोई साथी नहीं है
विडियो और फोटो में कुछ ऐसा फ़ंसा
कि शब्दों की सही वर्तनी अब आती नहीं है
फ़ेसबुक की दुनिया एक सूखे पेड़ सी है यारो
जिसमें शाख ही शाख है कोई पाती नहीं है
11 जुलाई 2011
सिएटल
Monday, July 11, 2011
फ़ेसबुक
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:38 PM
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Labels: digital age
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6 comments:
कोई मुझे च्यूंटी काटता है किसी को मैं
काटने पीटने की बात जरा भी सुहाती नहीं है
अरे इतनी भी बुरी नहीं है वो चेहरों की किताब हमें तो वहां बहुत से मित्र मिले
शायद आपको ही लोगों को अपना बनाने की विधि आती नहीं
badhiya...!
रवि साहब - हैरान हूँ कि इतनी भीड़ में आपको मेरा ब्लॉग भी नज़र आ गया. आपकी टिप्पणी - आपकी दो पंक्तियाँ एक नए सत्य को उजागर करती है.
नूतन - धन्यवाद!
विचारों, आदर्शों और भवनाओं की एक ऐसी खोखली दुनिया
जैसे वो दिया हो जिसमें बाती नही है ।।
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