तुम सोचती होगी
कि मेरा बुखार उतर गया होगा
तुम्हारा सोचना वाजिब भी है
पिछले आठ महीनों से मैंने तुम्हें फोन जो नहीं किया
और ना ही जन्मदिन की बधाई दी
या नव-वर्ष की
लेकिन
शायद तुम यह नहीं जानती
कि जब दर्द हद से गुज़र जाता है
तो दर्द ही दवा बन जाता है
अब मुझे
न तुम्हारी
न तुम्हारी आवाज़ की
न तुम्हारी तस्वीर की
किसी की भी ज़रूरत नहीं है
अब मैं हूँ तुम
और तुम हो मैं
सुबह से लेकर शाम तक
शाम से लेकर सुबह तक
तुम
हर पल
मेरे साथ हो
हाँ, बाबा, हाँ
सच, और पूरा सच
देखो,
तुम्हारा अहसास
कोई नाक पे रखा चश्मा तो है नहीं
कि रात को सोते वक़्त उसे उतार के रख दूँ!
और हाँ
मैं तुम्हें भूला नहीं
और न ही भूला सकता हूँ
लेकिन गाहे-बगाहे फिर भी याद ज़रूर कर लेता हूँ
उस बुद्धू की तरह
जो चश्मा पहने हुए है
फिर भी चश्मा ढूँढता रहता है
18 जुलाई 2011
सिएटल
Monday, July 18, 2011
तुम सोचती होगी
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:50 PM
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9 comments:
जो चश्मा पहने हुए है और फिर भी उसे ढूंढते है...और नाक पर रखा चश्मा तो नहीं है जो रात को सोते वक्त उतार दूँ..... ये दोनों उदाहरण बहुत जंचे. हमारे आस पास की छोटी छोटी चीजों कई बार बड़ी बातें सीखने को मिल जाती है.
dil ko chu jaane wali rachna
badhai
जो चश्मा पहने हुए है और फिर भी उसे ढूंढते है.....wahhhhhhhhhhhhh
Very nice style of writing Rahul Ji, aaj hi apke blog pe aana hua.
कभी कभी एक बार नहीं ,बहुत बार ऐसी रचना को रूह से महसूस करना पड़ता है ,कहीं यह मेरी .....
दिल बहल तो जायेगा इस ख्याल से...
हाल मिल गया तुम्हारा अपने हाल से...
अगले के फोटो-वोटो से भला क्या सरोकार...
गहरी रचना। दिल को छू जाने वाली...
ऐसा लगता है मानो मेरे किसी अपने ने लिखा है नाम बदल कर
tumhara ahsas koi naak pe rakha chasma to nahi ki rat ko sote waqt use utar ke rakh du...bahot acchi dil ko chu lenewli rachana
bahut sundar abhwaykti!!!!!!!
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