Wednesday, November 26, 2008

क़हर

पहले भी बरसा था क़हर
अस्त-व्यस्त था सारा शहर
आज फ़िर बरसा है क़हर
अस्त-व्यस्त है सारा शहर

बदला किसी से लेने से
सज़ा किसी को देने से
मतलब नहीं निकलेगा
पत्थर नहीं पिघलेगा
जब तक है इधर और उधर
मेरा ज़हर तेरा ज़हर

बुरा है कौन, भला है कौन
सच की राह पर चला है कौन
मुक़म्मल नहीं है कोई भी
महफ़ूज़ नहीं है कोई भी
चाहे लगा हो नगर नगर
पहरा कड़ा आठों पहर

न कोई समझा है न समझेगा
व्यर्थ तर्क वितर्क में उलझेगा
झगड़ा नहीं एक दल का है
मसला नहीं आजकल का है
सदियां गई हैं गुज़र
हुई नहीं अभी तक सहर

नज़र जाती है जिधर
आँख जाती है सिहर
जो जितना ज्यादा शूर है
वो उतना ज्यादा क्रूर है
ताज है जिनके सर पर
ढाते हैं वो भी क़हर

आशा की किरण तब फूटेंगी
सदियों की नींद तब टूटेंगी
ताज़ा हवा फिर आएगी
दीवारे जब गिर जाएंगी
होगा जब घर एक घर
न तेरा घर न मेरा घर

Sunday, November 23, 2008

मर्म बर्फ़ का

--- एक ---
गिरि पर गिरी
धीरे से गिरी
धरा पर गिरी
धीरे से गिरी

न गरजी
न बरसी
नि:शब्द सी
बस गिरती रही

रुई से हल्की
रत्न सी उज्जवल
वादों से नाज़ुक
पंख सी कोमल
बन गई पत्थर
जो कल तक थी कोपल

ज़मीं और आसमां में
यहीं है अंतर
देवता भी यहाँ आ कर
बन जाता है पत्थर

--- दो ---
विचरती थी हवा में
बंधन से मुक्त
धरा पर गिरी
तो हो जाऊँगी लुप्त

यही सोच कर
गई थी सखियों के पास
कि मिल-जुल के
हम कुछ करेंगे खास

लेकिन कुदरत के आगे
न चली एक हमारी
देखते ही देखते
पाँव हो गए भारी

जा-जा के छाँव में
मैं छुपती रही
आ-आ के धूप
मुझे चूमती रही

जब बोटी-बोटी पिघली
तब बेटी थी निकली

सोचा था उसे
तन से लगा कर रहूँगी
जो दु:ख मैंने झेले
उनसे उसे बचा कर रहूँगी

मैं थी चट्टान सी दृढ़
और वो थी चंचल कँवारी
एक के बाद एक
छोड़ के चल दी बेटियाँ सारी

मैं जमती-पिघलती
झरनों में सुबकती रही
कभी क्रोध में आ कर
कुंड में उबलती रही

माँ हूँ मैं
और जननी वो कहलाए
कष्ट मैंने सहे
और पापनाशिनी वो कहलाए

ज़मीं और आसमां में
यही है अंतर
यहाँ रिसते हैं रिश्ते
वहाँ थी आज़ाद सिकंदर

--- तीन ---
ज़मीं और आसमां में
यही है अंतर
परिवर्तन का सदा
धरती जपती है मंतर

आसमां है
जैसे का तैसा ही कायम
धरती ही रुप
बदलती निरंतर

जो भी यहाँ
आया है अब तक
लौट के गया
कुछ और ही बन कर

चाँद भी जब से
इसके चपेटे में आया
ख़ुद को बिचारे ने
घटता-बढ़ता ही पाया

सिएटल,
22 नवम्बर 2008

Friday, November 7, 2008

ओबामा की जीत

हर्ष-उल्लास है क्यूँ इतना,
ओबामा जो है जीता?
भला कांच का इक टुकड़ा,
क्यूँ लगता है हीरा?

हर कोई मनाए खुशियाँ
हर कोई लगा झूमने
इक वोट दे कर जैसे
सब पा लिया उसने
जैसे लॉटरी हो कोई निकली
या घोड़ा हो कोई जीता

नेताओ की महफ़िल में
वादों के करिश्मे हैं
तुम्हे सब्ज़ लगे दुनिया
पहनाते वो चश्मे हैं
दिखने में लगे सुंदर
पर पकवान है फीका

चैंन से रहता है
चैंन से है सोता
दुनिया चाहे डूबे
चाहे लगाए गोता
वक्ता दे देगा भाषण
जब डूबेगा सकीना

कभी गुरु से तोड़े नाता
कभी हिलेरी से हाथ मिलाए
कब किससे हाथ मिलाए
कुछ समझ नहीं आए
न हुआ जो किसी का अब तक
क्या होगा किसी का

पूँजीवाद की दुनिया में
सेठों की ही चलती है
जिसे दे दें ये चंदा
जनता उसे ही चुनती है
जो बोए वही काटे
वही फलता जिसे सींचा

7 नवम्बर 2008
(अकबर इलाहबादी से क्षमायाचना सहित)
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Tuesday, November 4, 2008

परिणाम चाहे जो भी हो

डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते, हमे क्या
ये मुल्क नहीं मिल्कियत हमारी
हम इन्हें समझे हम इन्हें जाने
ये नहीं अहमियत हमारी

तलाश-ए-दौलत आए थे हम
आजमाने किस्मत आए थे हम
आते हैं खयाल हर एक दिन
जाएंगे अपने घर एक दिन
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
बदलेगी नहीं नीयत हमारी
हम इन्हें समझे ...

ना तो है हम डेमोक्रेट
और नहीं है हम रिपब्लिकन
बन भी गये अगर सिटीज़न
बन न पाएंगे अमेरिकन
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
छुपेगी नहीं असलियत हमारी
हम इन्हें समझे ...

न डेमोक्रेट्स का प्लान
न रिपब्लिकन्स का वाँर
कर सकता है
हमारा उद्धार
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
पूछेगा नहीं कोइ खैरियत हमारी
हम इन्हें समझे ...

हम जो भी हैं
अपने श्रम से हैं
हम जहाँ भी हैं
अपने दम से हैं
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
काम आयेगी बस काबिलियत हमारी
हम इन्हें समझे ...

फूल तो है पर वो खुशबू नहीं
फल तो है पर वो स्वाद नहीं
हर तरह की आज़ादी है
फिर भी हम आबाद नहीं
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
यहाँ लगेगी नहीं तबियत हमारी
हम इन्हें समझे ...

Monday, November 3, 2008

ये भी कोई चुनाव है?

अमरीकी वोटर की शामत आई है
एक तरफ़ कुआँ एक तरफ़ खाई है
किसे वोट दे किसे न दे
सोच सोच हालत पतली हो आई है

48 पुराने राज्यों के होते हुए
दो नए-नवेले राज्यों ने धूम मचाई है
एक तरफ़ अलास्का एक तरफ़ हवाई है
मैनलेंड के निवासियों पर जम कर चपत लगाई है

पहले साल भर चला वो नाटक था
जिसमें एक नारी थी एक वाचक था
चुनना दोनों में से सिर्फ़ एक था
जबकि इरादा किसी का न नेक था

धरा पे धरा ये संसार है
नारी से करता ये प्यार है
दिल करता उस पे निसार है
नित देता उसे उपहार है

लेकिन अहंकार के आगे मजबूर है
नारी रानी बने नहीं मंजूर है
हिलैरी का दिल इसने तोड़ दिया
हवाईअन से नाता जोड़ लिया

चलो डेमोक्रेट्स ने किया तो कोई ग़म नहीं
लेकिन रिपब्लिकन्स भी निकले कम नहीं
गधे तो गधे ही होते हैं
लेकिन हाथी तो साथी होते हैं
जब जनता नारी नकार चुकी थी
खा-पी के सब डकार चुकी थी
जनता को फिर झकझोड़ दिया
ओल्ड बॉयज़ क्लब का भ्रम तोड़ दिया
ओबामा के सामने बम फोड़ दिया
चुनाव का रुख मोड़ दिया

रानी नहीं तो पटरानी ले लो
बूढ़े के साथ जवानी ले लो
'गर मैं गुड़क गया तो
पेलिन राज करेंगी
5 बच्चों का खयाल रखती है
आप का भी ये खयाल रखेंगी

लेकिन मैं हूँ एक एन-आर-आई
पक्का घाघ और अवसरवादी
इनके झांसे में नहीं आनेवाला
लाख सफाई चाहे दे दें
मुझे तो नज़र आए दाल में काला

सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं
क्या अलास्का और क्या हवाई है?
एक बर्फ़ तो एक समंदर है
इनके बीच क्या हो सकती लड़ाई है?
हिम से ही सागर निकले
सागर से ही हिम बरसे
जल के ही दोनों रूप है
जल बिन हर कोई तरसे

हम तो अपने मस्त रहेंगे
वोट इनमें से एक को न देंगे
न इस चुनाव में
न किसी चुनाव में
न भाग लिया है
न भाग लेंगे
कल को अगर कोई मुसीबत आए
हम तो फ़्लाईट पकड़ कर भाग लेंगे

3 नवम्बर 2008