Saturday, March 2, 2013

बोल हैं कि वेद की ऋचाएँ?

बोल हैं कि वेद की ऋचाएँ?
समझने लगूँ तो समझ न आए
बोलने वाली बस इतराए
इधर-उधर मैं भटकूँ हाए
कोई तो हो जो सार बताए


लगूँ गले या तकूँ दिन रात?
'मीट' खाऊँ या खाऊँ सलाद?
बनूँ अंग्रेज़ या बनूँ प्रहलाद?
अगले जन्म की बाट जोहूँ
या इसी जन्म में होगा मिलाप?


हैं ऋचाएँ कितनी उलझी-उलझी
भगवान जाने कितनी सच्ची, कितनी झूठी
इनको पढ़ के न बढ़े उत्साह
लाखों लोग जो हैं बेरोज़गार
होता नहीं उनका उद्धार


कर्क रोग मधुमेह बीमारी
क्या हरेगी ये हर व्यथा हमारी?
क्या इनमें हैं कोई ऐसे 'फ़ंडे'
जिन्हें पढ़ के हम गाड़ दे झंडे?
दुनिया में हम नाम कमाए
और हर्षित-हर्षित हरि गुण गाए?



2 मार्च 2013
सिएटल । 513-341-6798

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मीट = meat
फ़ंडे =  interesting facts or concepts

 

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1 comments:

Anonymous said...

कविता अच्छी लगी! सच में आज कल हर तरफ information का overload है - किसकी बात सुनो, किसकी बात follow करो?

मुझे लगता है life को simple रखो और common sense की सुनो - बाकी सब कुछ filter कर दो :)