Tuesday, February 1, 2011

बहुत दिन हुए एक कविता लिखी थी

बहुत दिन हुए एक कविता लिखी थी
जिसमें मुझे एक सूरत दिखी थी


आज देखा तो कुछ भी नहीं है
अक्षर हैं, हस्ताक्षर नहीं है
शीर्षक सही, तिथि भी वही है
मन की लेकिन वो परिस्थिति नहीं है


कागज़ बदलूँ, कुछ फ़ाँट सुधारूँ
क्या करूँ जिससे उसे उभारूँ?


उपमाओं की कोई कमी नहीं है
अलंकारों की भी भीड़ लगी है
किसी भी रस का अभाव नहीं है
फिर भी मन में भाव नहीं है


शब्द बदलूँ, कुछ पर्याय सुधारूँ
क्या करूँ जिससे उसे उभारूँ?


दुनिया चलती दो पदों से
इसमें तीन पद पर गात नहीं है
तरह-तरह के हथकंडे लेकिन
आता कुछ भी हाथ नहीं है


सरस्वती पूजूँ, किसे पुकारूँ?
क्या करूँ जिससे उसे उभारूँ?




सिएटल
1 फ़रवरी 2011

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1 comments:

Anonymous said...

Man Kee tees kee badee acchee vyakhyaa kee, Badhaayee!