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वक़्त की क़ैद में ज़िंदगी है मगर
चंद घड़ियाँ यही हैं जो आज़ाद हैं
(फ़ैयाज़ हाशमी)
जी हाँ, फ़ैयाज़ साहब ने सही कहा, इन घड़ियों के अलावा सारी घड़ियाँ या तो कलाई पर पट्टे से बंधी हुई हैं या फिर खूँटे से टाँग दी गई हैं।
लीजिए प्रस्तुत हैं मेरी दो कविताएँ घड़ी से सम्बन्धित।
#1
घड़ी भी अजीब है
नई है
फिर भी सेकण्ड हैण्ड है
काँटे भी हैं
जो दिन-रात चेहरे पर चलते रहते हैं
फिर भी लहूलुहान नहीं होती
सुबह सवा-सात का तमंचा
ऐसा डराता है कि
मैं मवेशियों की तरह
निकल पड़ता हूँ घर से
और
पौने-पाँच का तमंचा देखकर
बटोरने लगता हूँ अपना बस्ता
लौट आता हूँ अपने घर
रात के
सवा-नौ बजे
चित्त हो जाता हूँ
सवा-नौ की तरह
दिन में दस-दस पर
मुस्कुराती भी होगी
पर मेरे पास फ़ुरसत ही कहाँ
इसे देखने की
देखने में है छोटी सी
ज़्यादा आवाज़ भी नहीं करती
लेकिन जाने क्या है कि
इसका दबदबा बना रहता है
#2
घड़ी भी चलते-चलते
थक जाती है
सुस्त हो जाती है
कभी
एक मिनट
तो कभी
दो मिनट
पीछे हो जाती है
और कभी-कभी तो
घंटों पीछे हो जाती है
लेकिन समय
फिर भी साथ नहीं छोड़ता
कभी भी घड़ी को
छ: घंटे से ज्यादा
पीछे नहीं होने देता
यहाँ तक कि
कई बार तो ऐसा भी आभास होता है
कि समय पीछे रह गया
और घड़ी आगे निकल गई
और फिर वो दोनों
एक पल के लिए ही सही
साथ हो जाते हैं
दोनों एक दूसरे के साथ
आगे-पीछे
चलते रहते हैं
जैसे
शाम को
किसी मोहल्ले में
निकले हो
अंकल-आंटी
टहलने को
थक जाती है
सुस्त हो जाती है
कभी
एक मिनट
तो कभी
दो मिनट
पीछे हो जाती है
और कभी-कभी तो
घंटों पीछे हो जाती है
लेकिन समय
फिर भी साथ नहीं छोड़ता
कभी भी घड़ी को
छ: घंटे से ज्यादा
पीछे नहीं होने देता
यहाँ तक कि
कई बार तो ऐसा भी आभास होता है
कि समय पीछे रह गया
और घड़ी आगे निकल गई
और फिर वो दोनों
एक पल के लिए ही सही
साथ हो जाते हैं
दोनों एक दूसरे के साथ
आगे-पीछे
चलते रहते हैं
जैसे
शाम को
किसी मोहल्ले में
निकले हो
अंकल-आंटी
टहलने को
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