Wednesday, July 24, 2013

खिड़कियाँ बंद

खिड़कियाँ बंद करो
दरवाज़ें भिड़ाओ
पर्दे गिराओ
ट्यूबलाईट जलाओ
फ़ुल-स्पीड से पंखा चलाओ


ऐसे में
फिर क्या कोई सोचे
पुरवाई चली
या चिड़िया कहीं बोली?


पंखों के शोर में
परवाज़ सुनाई नहीं देती
चिड़िया की चहचहाट तो दूर
खुद को खुद की आहट सुनाई नहीं देती


ऐसे में
फिर क्या कोई सोचे
सूरज आया? गया किधर?
चाँद पूरा है? या कटा कहीं से?
मेघ आएं? गरजें-बरसें?


24 जुलाई 2013
दिल्ली । 98713-54745

 

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4 comments:

Anonymous said...

कभी-कभी खिड़कियाँ बंद रहें, दरवाज़े भिड़े रहें, परदे गिरे रहें, तो ही अच्छा रहता है। सच क्या है - कड़ी धुप या ठंडी पुरवाई - हमें पता नहीं होता और हम अपनी छोटी सी दुनिया में कुछ पलों के लिए बहुत खुश रह लेते हैं।

Rahul said...

people r busy in their lives...

अनुपमा पाठक said...

समय ही नहीं है किसी के पास, और इसी में कितना कुछ छूटा जा रहा है...

Anonymous said...

kya kahe jindgi me gum ho gaya insaan.