Sunday, July 5, 2015

मेरे हमदम, मेरे दोस्त


मेरे हमदम, मेरे दोस्त
तू क्यूँ गया मुझे यूँ छोड़
तेरा मेरा साथ था बंधन
बंधन तू गया क्यूँ तोड़

जब-जब मैंने जो-जो चाहा
तब-तब तूने वो-वो माना
इस बार क्या हुआ
जो गया तू मुख मोड़

तेरा जीवन था मेरा सहारा
तूने मेरा हर काम सँवारा 
तेरी मिसालें मैं हरदम देता
तू था इंसां ऐसा एक बेजोड़

मेरी ज़िंदगी अब भी बाक़ी
तीस नहीं तो पच्चीस बाक़ी 
जैसे-तैसे काटूँगा मैं
जब तक लूँ न मैं चादर ओड़

5 जुलाई 2015
दिल्ली । +91-11-2237-3670

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2 comments:

Anonymous said...

जाने वाले बहुत सी प्यार भरी यादें देकर चले जाते हैं। हमें उन यादों के सहारे ही जीना पड़ता है। कभी वो यादें हमें हँसाती हैं , कभी रुलाती हैं। किसी दिन हम मन को समझा लेते हैं, किसी दिन कितनी भी कोशिश करने पर मन नहीं समझता।

ईश्वर का धन्यवाद कि उन्होंने हमें इस काबिल समझा की इतने अच्छे दोस्त का gift दिया। उनकी चीज़ थी, उनकी इच्छा से हमें मिली थी, और आज उन्हीं के पास फिर चली गयी है। जैसा आपने कहा, एक दिन ईश्वर की कृपा से वो दोस्त फिर मिलेगा - आवश्य मिलेगा - पर अभी हमें इस जुदाई को सहने की हिम्मत रखनी पड़ेगी , और ईश्वर को अपने मन की बात बताते हुए चलना पड़ेगा। ऐसा करना बहुत मुश्किल है मगर धीरे - धीरे कोशिश कीजिये...

Anonymous said...

मुझे कविता की simplicity और बातों की सच्चाई बहुत अच्छी लगी।