Monday, December 26, 2016

पता हो तो घर होता है

पता हो तो घर होता है

घर हो तो पता होता है

वरना किसको 

किसका पता होता है


सबका 

अपना-अपना भाग्य है

किसी को कुछ

तो किसी को कुछ अता होता है


अब किस-किसको 

कोई कहाँ तक समझाए

कि जोड़ने ही से नहीं 

सब कुछ जमा होता है


किसी ने किसी से 

दोस्ती कर ली

सबको अच्छा लगे

ये कहाँ होता है


दोस्ती-दुश्मनी

प्रेम-ईर्ष्या

क्षणभंगुर जीवन में भी 

इनका रोल बड़ा होता है


शिकायत नहीं कोई

ज़िन्दगी से मगर

दु: होता है जब कोई

हम-उम्र फ़ना होता है


सब जन्मदिन मना रहे थे 

और तुम गुज़र गए

यह भी कोई जाने का 

तरीक़ा होता है


(George Michael - Rest in peace.)

26 दिसम्बर 2016

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Friday, December 23, 2016

क्रिसमस ट्री की तरह कटता ही रहा हूँ मैं

क्रिसमस ट्री की तरह 
कटता ही रहा हूँ मैं
कभी इस ट्रक पे, कभी उस ट्रक पे
लदता ही रहा हूँ मैं

मैं तकता रहा 
प्रेज़ेंट्स औरों के लिए
कोई लाया नहीं 
कुछ मेरे लिए
यूँही सज-धज के
मीत सब तज के
तकता ही रहा हूँ मैं

हॉल में सजूँ
या कि कमरे में
कटे हुए की जगह
तो है कचरे में 
बिन आरनामेंट्स
बिन लाईट्स के
ठिठुरता ही रहा हूँ मैं

आज ख़रीदा गया
कल फेंका गया
जलती आग पे भी
मुझे सेंका गया
यूँही बिक-बिक के
यूँही सिक-सिक के
मिटता ही रहा हूँ मैं

(रवीन्द्र जैन से क्षमायाचना सहित)
23 दिसम्बर 2016
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Monday, December 19, 2016

इस श्वेत-श्याम चित्र में रंग हमने भरे हैं


इस श्वेत-श्याम चित्र में रंग हमने भरे हैं

क़ुदरत तो सोती रही, 5 बजे के अलार्म हमने भरे हैं


सोओ तो सपने

जागो तो सपने

सपनों के पीछे हम कबसे लगे हैं 


दिन भर खटो तो कहलाओ कोल्हू के बैल

घर पर पड़े रहो तो कहे अजगर हैं आप

कुछ बनने की प्रक्रिया में हम क्या-क्या बने हैं

सर से पाँव तक हम तानों से सने हैं


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छूट जाते हैं हाथ से

कभी फोन 

तो कभी किताब


लोग कोशिश करते हैं 

सोने की

और मैं जगे रहने की


उठ जाता हूँ अलसुबह

जुड़ जाता हूँ क़तारों में 

घुस जाता हूँ गलियारों में 

रात जब लौटता हूँ

तो कुछ सुन-सुनाके, पका-खाके

हो जाता हूँ ढेर


मैं बह रहा हूँ

किसी पत्ते की तरह

समय की नदी में 


और कहनेवाले

कहते हैं कि

जागो

जीवन को साधो


मैं 

एक मासूम बच्चे की तरह

सोचता ही रहता हूँ कि

जागा तो मैं अलसुबह से हूँ

क्या जब नींद आए तब सो भी नहीं सकता?

और अब कितने नियम बनाऊँ?

कितना अनुशासित करूँ ख़ुद को?


छूट जाते हैं हाथ से

कभी फोन 

तो कभी किताब


लोग कोशिश करते हैं 

सोने की

और मैं जगे रहने की


कहीं बज उठता है गीत:

कहाँ जा रहा है तू जानेवाले

अँधेरा है मन का, दीया तो जला ले


और वो भी जगाने की बजाए

लोरी का काम कर जाता है


छूट जाते हैं हाथ से

कभी फोन 

तो कभी किताब


19 दिसम्बर 2016

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Friday, December 16, 2016

तू अनादि है, अनन्त है

तू अनादि है, अनन्त है

तेरी कायनात सर्वत्र है

तूझे खोजता मैं अब नहीं 

मुझमें ही तेरा अक्स है

तू यत्र है, तू तत्र है

तू मेरा हो के भी स्वतंत्र है


तुझसे माँगता मैं अब नहीं 

तुझसे रूठता मैं अब नहीं 

तू पास है, तू ख़ास है

तुझसे बंधी मेरी साँस है

इस बात का जब अहसास है

फिर माँगना और रूठना

एक निरर्थक प्रयास है


मैंने माँगा नहीं, तूने जन्म दिया

मैंने चाहा नहीं, तूने सब दिया

ऐसा नहीं कि इफ़रात है

और कमी का नहीं आभास है

पर माँगना और रूठना

एक निरर्थक प्रयास है


तू घूमता नहीं गली-गली

ले के जादुई छड़ी

कि इसको मैं वार दूँ

इसकी ज़िन्दगी सँवार दूँ 

इसको जीत, इसको हार दूँ 

इसे बख़्श दूँ, इसे मार दूँ 


तू है हर कली, हर फूल में 

तू है धूल में, हर शूल में

तू रूकता किसी के कहे

तू चलता किसी के सुने

तू आत्म है, विश्वास है

तू ही आत्मविश्वास है

सब है यहीं, सब पास है

फिर माँगना और रूठना

एक निरर्थक प्रयास है


16 दिसम्बर 2016

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