जला है कोई और मैं आग लगाने लगा हूँ
मरा है कोई और मैं गीत सुनाने लगा हूँ
कवि हूँ कवि का धर्म निभाऊँगा ज़रूर
दुनिया के ग़म को भुनाने लगा हूँ
ऐसा नहीं कि पहले लड़ाई-झगड़े होते नहीं थे
अब हर रंजिश को जामा नया पहनाने लगा हूँ
ये कौम कौम नहीं, है दुश्मन हमारी
कह कह के भाईचारा बढ़ाने लगा हूँ
ख़ुद निकल आया हूँ मैं कोसों दूर वहाँ से
अब उनको ख़ुद्दारी से जीना सीखाने लगा हूँ
बात औरों की नहीं, कही अपनी है यारो
फिर न कहना कि आईना दिखाने लगा हूँ
सिएटल । 425-445-0827
22 मार्च 2010
Monday, March 22, 2010
जला है कोई और मैं आग लगाने लगा हूँ
Posted by Rahul Upadhyaya at 4:42 PM
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3 comments:
nice
सच्चाई की अभिव्यक्ति के लिए शुभकामनायें !
बढ़िया!
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हिन्दी में विशिष्ट लेखन का आपका योगदान सराहनीय है. आपको साधुवाद!!
लेखन के साथ साथ प्रतिभा प्रोत्साहन हेतु टिप्पणी करना आपका कर्तव्य है एवं भाषा के प्रचार प्रसार हेतु अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें. यह एक निवेदन मात्र है.
अनेक शुभकामनाएँ.
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