मैं पिलाता हूँ लेकिन मैं बरसता नहीं
मेघों की माफ़िक मैं गरजता नहीं
अरे काफ़ी है कॉफ़ी बने रिस-रिस के
मेरे रिसने से किसी का कोई फ़ायदा नहीं
इसलिये जुड़ता नहीं, रहता बे-रिश्ता हूँ मैं
न रिश्ता है, न रिसता हूँ
न बा-रस्ता हूँ मैं
एक मुकाम पे बैठा बरिस्ता हूँ मैं
राहुल उपाध्याय | 2 अगस्त 2013 | मुम्बई
2 comments:
कविता का title पढ़कर पहले लगा कि यह एक पहेली है। पहेली होती तो भी अच्छी होती मगर जब उसे कविता कि तरह पढ़ा तो एक अलग अर्थ सामने आया। रिश्तों को ख़ुशी से निभाने का यह भी एक रास्ता है। अंत की lines बहुत गहरी बात कहती हैं:
"न रिश्ता है, न रिसता हूँ
न बा-रस्ता हूँ मैं
एक मुकाम पे बैठा बरिस्ता हूँ मैं"
"बरसता," "बा-रस्ता," "बे-रिश्ता," और "बरिस्ता" का wordplay बहुत unique है और कविता के context में बहुत ही सही है। कविता अच्छी लगी!
एक मुकाम पे बैठा बरिस्ता हूँ मैं
***
ऊपर से बहुत सरल लगने वाली बात कितनी गहन हो सकती, उसका प्रमाण है यह कविता!
बहुत सुन्दर!
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