जब मैं देर से उठा
तो
घड़ी के काँटे
अपनी मूँछों पर ताव दे रहे थे
और
दुनिया बदली-बदली सी लगी
मन हुआ कि
कलफ़ लगे कड़क सफ़ेद कुर्ते-पजामे में मैं
सोफ़े पर पसर कर
अखबार पढ़ूँ
और बीच-बीच में
लम्बे पतले काँच के ग्लास से
ऑरेंज जूस की चुस्कियाँ लेता जाऊँ
ऐसा नहीं
कि इंसान हमेशा अपना बचपन ही याद करता है
कभी-कभी
देर से जगने पर
वो
रिटायरमेंट के सपने भी देख लेता है
सपने!
कितनी अजीब बात है!
जिन्हें
हम जगते हुए देखते हैं
वे
अंततोगत्वा
हमारी नींद छीन ही लेते हैं
सपने!
जिन्हें देखना
नितांत नि:शुल्क क्रिया है
उनके पीछे
भागते-भागते
जागते-जागते
इंसान
पूरा का पूरा
खर्च हो जाता है
30 मार्च 2014
सिएटल । 513-341-6798