Monday, November 3, 2014

डूबता सूरज

डूबता सूरज सुंदर है
झड़ते पत्ते लगते प्रियकर हैं
ये कैसे 'एम्बुलेंस चेज़र' हैं हम
कि मरणासन्न को देख खुलते 'शटर' हैं

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डूबता सूरज
डूबता रहा
डूबता गया
और फिर डूब ही गया

लोग कैमरे क्लिक करते रहें
प्रियजन पीठ दिखाकर 'पोज़' देते रहें

किसी ने उसे डूबने से न रोका
किसी ने हाथ बढ़ाकर उठाने का न सोचा

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हम सब ज्ञानी-ध्यानी हैं
ज्ञान-विज्ञान की खान हैं

वो डूबा कहाँ?
वो डूबा नहीं

सब माया है
छलावा है
आज गया है
कल फिर आएगा
बस कपड़े 'लॉन्ड्री' में डाले हैं
कल नए कपड़े पहन के आएगा

और नहीं आया
तो और खुशियाँ मनाओ
कि उसे मोक्ष प्राप्त हो गया
सार बंधनों से वो मुक्त हो गया

3 नवम्बर 2014
सिएटल । 513-341-6798

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1 comments:

Anonymous said...

हम पतझड़ के पत्तों अौर sunset में सिर्फ रंगों की सुंदरता देखते हैं और ख़ुश हो जाते हैं। आपने ठीक कहा कि इन नज़ारों में हमें life के end से connection नहीं दिखता।

कविता का दूसरा part बहुत touching है। यह जानते हुए कि पत्ते झड़ रहे हैं, किसी जीवन का दुख में अंत हो रहा है, हम नज़ारे की तरह देखते रहते हैं। "प्रियजन पीठ दिखाकर 'पोज़' देते रहें" - यह line बहुत गहरी है। Death चाहें sunset की तरह natural है और होनी ही है, मगर उसमें किसी का सहारा होना बहुत सुखद होता है।

Third part शायद second part के लिए हमारी justification है। Death से तो सिर्फ़ शरीर बदलता है, आत्मा तो फिर जन्म लेती है। और न जन्म ले तो वो जीवन-मरण के cycle से छूट जाती है। पतझड़ और sunset का death और rebirth से comparison बहुत profound है।

कविता के तीनों parts बहुत गहरी बातें कहते हैं। पढ़कर बहुत कुछ सोचने को मिला!