Friday, February 6, 2015

बादल और क्लाउड

उधर बिन बादल सब सून है

खेत सूखे, खलिहान सूखे
कुत्ते-बिल्ली कपड़े चूसे
नल पानी से ऐसे रूठे
जैसे पक गई जनता
सुन-सुन वादे झूठे

गहरा कुँआ छोटा दिखे
पास कोई न फटकता दिखे
ईंट-पत्थर, कूड़ा-कचरा
सब का सब भरता दिखे

खाल चिपके
मवेशी टपके
गिद्ध हर्षे
झटपट झपटे

और इधर बिन क्लाउड सब सून है

न ई-मेल है, न फ़ेसबुक है
न म्युज़िक है, न यू-ट्यूब है
हाथ में बस एक पत्थर है
जिस पे गुणा-भाग का हिसाब परखो
या तीन सौ - चार सौ काँटेक्ट्स निरखो
किसे फ़ोन करो, किसे पुकारो?
करो भी तो कोई न फ़ोन उठाए
उल्टे-सीधे कुछ फ़ोटो ले लो
ले तो लो पर किसे दिखाओ?
क्यूट-फ़नी-विटी कैप्शन कैसे लिखो?
किसे बधाई दो, किसे ढाढ़स बँधाओ?
किसे जताओ फ़ीलिंग लोनली?

उधर बिन बादल सब सून है
और इधर बिन क्लाउड सब सून है
बिन-बिन की बीन का बढ़ा ज़हरीला सुर है
प्रथम विश्व हो या तृतीय विश्व हो
अपनी-अपनी धुन में हर आदमी मज़बूर है

6 फ़रवरी 2015
सिएटल | 513-341-6798


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1 comments:

Anonymous said...

बादल और cloud का अच्छा comparison है। जिस तरह लोग बादल पर depend करते हैं कि वो पानी बरसाएगा, इसी तरह हम Internet के cloud पर depend करते हैं कि वो हमारी daily life में काम आने वाले data को safe और available रखेगा। वर्षा के बिना भी life standstill हो जाती है और cloud के बिना भी लगता है कि सारा जीवन disrupt हो गया है। फर्क बस इतना है कि वर्षा तो life को sustain करने के लिए ज़रूरी है मगर cloud हमारी बनाई हुई ज़रूरतों को sustain करने के लिए चाहिए। कविता में यह expression - "नल पानी से ऐसे रूठे" - बहुत प्यारा लगा!