Thursday, April 7, 2016

काफ़ी हैं क़ाफ़िले


काफ़ी हैं क़ाफ़िले 
और कम भी हैं अब गिले
फिर भी मैं किसीके साथ नहीं 
और कोई मेरे साथ नहीं

कमाया बहुत इन हाथों ने
पर लगा कुछ भी हाथ नहीं 
कहने को है बहुत कुछ मगर
कहने को कुछ खास नहीं

जो दिख रहा है, वो देख लो
जो नहीं दिख रहा है, वो सोच लो
मैं हूँ परवाना, या हूँ शोख़ लौ (*)
जो समझ आए वो सोख लो
मैं हूँ शालिग्राम (#), या हूँ तुलसीदल?
जो भी हूँ, बस हूँ अभिशप्त

*
शोख़ लौ:
वही
जिसने
चिर-काल से 
हमें चिर-आग दी
हर किसी को एक आस दी
एक को दूसरे की ओर आकर्षित किया
जन्म दिया, प्राण फूँके
और
इससे पहले कि पहला बुझे
और जलकर ख़ाक हो
नया दीया
जला दिया

#
शालिग्राम:
भगवान जब पत्थर हुए तो पूज्य हुए
अहिल्या जब पत्थर हुई तो त्यक्त हुई
जो पूज्य हुए, वे पत्थर रहे
जो तज दी गई, वो तर गई
रामचरण से तर गई

शोख़ = bright 
7 अप्रैल 2016
सिएटल | 425-445-0827


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2 comments:

Anonymous said...

कविता में दुख का भाव है, कि सब होने पर भी कुछ नहीं है। यह lines बहुत touching लगीं:
"कहने को है बहुत कुछ मगर
कहने को कुछ खास नहीं"
इन lines में भी दर्द है:
"जो भी हूँ, बस हूँ अभिशप्त"

लौ की description बहुत सुन्दर है। अहिल्या पर यह lines अच्छी लगीं:
"जो तज दी गई, वो तर गई
रामचरण से तर गई"

RK said...

lovely ...well said..... great writing .