करोड़ों-करोड़ों मत गिनने में वक़्त तो लगता है
लड्डू पहले से जो खा ले भक्त तो लगता है
मुद्दों की कोई बात नहीं की, भगवा ही फहराना था
भगवे में मिल गया कहीं-कहीं रक्त तो लगता है
हैं तपस्वी और त्यागी भी, दया का कोई भाव नहीं है
लीन हैं ध्यान में फिर भी चेहरा सख़्त तो लगता है
फूल नहीं हैं, पात नहीं हैं, फल की भी गुंजाईश नहीं है
क्यूँ सींचूँ ऐसे दरख़्त को, गो सशक्त तो लगता है
राहुल उपाध्याय । 21 मई 2019 । सिएटल
1 comments:
गज्जब :)
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