साल दर साल
मन में उठता है सवाल
शुभकामनाओं की मियाद
क्यूं होती है बस एक साल?
चलो इसी बहाने
पूछते तो हो
एक दूसरे का हाल
साल दर साल
जब जब आता नया साल
सेन फ़्रांसिस्को
30 दिसम्बर 2004
साल दर साल
मन में उठता है सवाल
शुभकामनाओं की मियाद
क्यूं होती है बस एक साल?
चलो इसी बहाने
पूछते तो हो
एक दूसरे का हाल
साल दर साल
जब जब आता नया साल
सेन फ़्रांसिस्को
30 दिसम्बर 2004
Posted by Rahul Upadhyaya at 4:51 PM
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पहले प्रतीक्षा रहती थी वर्ष के आरम्भ की
क्यूंकि तब डायरी बदली जाती थी
पहले प्रतीक्षा रहती थी वर्षा के आरम्भ की
जो सावन की बदली लाती थी
अब कम्प्यूटर के ज़माने में डायरी एक बोझ है
और बेमौसम बरसात होती रोज है
बदली नहीं बदली
ज़िंदगी है बदली
बारिश की बूंदे जो कभी थी घुंघरु की छनछन
दफ़्तर जाते वक्त आज कोसी जाती हैं क्षण क्षण
पानी से भरे गड्ढे थे झिलमिलाते दर्पण
आज नज़र आते है बस उछालते कीचड़
जिन्होने सींचा था बचपन
आज वही लगते हैं अड़चन
रगड़ते वाईपर और फिसलते टायर
दोनो के बीच हुआ बचपन रिटायर
बदली नहीं बदली
ज़िंदगी है बदली
कभी राम तो कभी मनोहारी श्याम
कभी पुष्प तो कभी बर्फ़ीले पहलगाम
तरह तरह के कैलेंडर्स से सजती थी दीवारें
अब तो गायब हो गए हैं ग्रीटिंग कार्ड भी सारे
या तो कुछ ज्यादा ही तेज हैं वक्त के धारें
या फिर टेक्नोलॉजी ने इमोशन्स हैं मारे
दीवारों से फ़्रीज और फ़्रीज से स्क्रीन पर
सिमट कर रह गए संदेश हमारे
जिनसे मिलती थी अपनों की खुशबू
आज है बस रिसाइक्लिंग की वस्तु
बदली नहीं बदली
ज़िंदगी है बदली
पहले प्रतीक्षा रहती थी वर्ष के आरम्भ की ...
सिएटल,
31 दिसम्बर 2007
==============
डायरी = diary
वाईपर =wiper
टायर = tire
रिटायर = retire
कैलेंडर्स = calendars
ग्रीटिंग कार्ड = greeting card
टेक्नोलॉजी = technology
इमोशन्स = emotions
फ़्रीज = fridge
स्क्रीन्स =screens
रिसाइक्लिंग = recycling
Posted by Rahul Upadhyaya at 9:16 PM
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Labels: digital age
छुट्टीयों का मौसम है
त्योहार की तैयारी है
रोशन हैं इमारतें
जैसे जन्नत पधारी है
कड़ाके की ठंड है
और बादल भी भारी है
बावजूद इसके लोगो में जोश है
और बच्चे मार रहे किलकारी हैं
यहाँ तक कि पतझड़ की पत्तियां भी
लग रही सबको प्यारी हैं
दे रहे हैं वो भी दान
जो धन के पुजारी हैं
खुश हैं खरीदार
और व्यस्त व्यापारी हैं
खुशहाल हैं दोनों
जबकि दोनों ही उधारी हैं
भूल गई यीशु का जन्म
ये दुनिया संसारी है
भाग रही उसके पीछे
जिसे हो हो हो की बीमारी है
लाल सूट और सफ़ेद दाढ़ी
क्या शान से संवारी है
मिलता है वो माँल में
पक्का बाज़ारी है
बच्चे हैं उसके दीवाने
जैसे जादू की पिटारी है
झूम रहे हैं जम्हूरें वैसे
जैसे झूमता मदारी है
राहुल उपाध्याय | दिसम्बर 2003 | सेन फ़्रांसिस्को
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:17 AM
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पिछले तीन दिनों से
श्वेत हिम-कण
मेरे घर पर पहरे दे रहे हैं
न किसी को आने देते हैं
न मुझे ही बाहर पाँव धरने दे रहे हैं
बड़े आए लिखने वाले
रोती-धोती अबला के मर्म पर
हम से बड़ा है मर्द कौन
देख इधर और कुछ शर्म कर
बार-बार हिम-कण
मुझे उलाहने दे रहे हैं
खिलती है धूप मगर
ये हैं कि मिटते ही नहीं
चलती है हवा मगर
ये हैं कि हटते ही नहीं
इनके आगे बड़े-बड़े
टेक घुटने दे रहे हैं
बड़ा भारी हो महल कोई
या घर हो कोई छोटा-मोटा
चमचाती हो मर्सडीज़
या धूल खाती हो टोयोटा
रुप-रंग के भेद सारे
सफ़ेद चादर में दबने दे रहे हैं
रंग रहित थे सारे पेड़
और निर्वस्त्र सी थी सारी डालियाँ
हीरे-मोती की उन पर
अब चमकती हैं झूमर-बालियाँ
फ़्री-फ़ोकट में दुनिया को ये
सुंदर-सुंदर गहने दे रहे हैं
ये आए हैं कहाँ से
और कहाँ इन्हें जाना है
भली-भाँति तरह से
भला किस ने जाना है
बन गया है कोई दार्शनिक
तो किसी को वैज्ञानिक बनने दे रहे हैं
सिएटल,
22 दिसम्बर 2008
=============
मर्म = http://mere--words.blogspot.com/2008/11/blog-post_23.html
मर्सडीज़ = Mercedes
टोयोटा = Toyota
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:22 AM
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Labels: nature
Posted by Rahul Upadhyaya at 6:39 PM
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Labels: new, news, parodies, Raja Mehadi Ali Khan, TG
सांड है छुट्टी पर
और भालू का बाज़ार है
जब चिड़िया चुग गई खेत
कर रहे बेल-आउट का इंतज़ार है
धनाड्यों की दुनिया में
छाया अंधकार है
दिन में तारें दिखते हैं
हुआ बंटाधार है
अच्छे खासे सेठों का
ठप्प हुआ व्यापार है
स्टॉक्स के जुआरी लोग
कर रहे हाहाकार है
माना कि सारे जीव-जंतुओं में
मनुष्य सबसे होशियार है
आंधी आए, तूफ़ां आए
लड़ने को रहता तैयार है
सर्दी-गर्मी से निपटने को
किए हज़ारों अविष्कार हैं
पाँव मिले थे चलने को
पंख किए इख्तियार है
छोटी-बड़ी सारी समस्याओं से
पा लेता निस्तार है
सुनामी से भी बचने का
खोज रहा उपचार है
लेकिन फ़ितरत ही कुछ ऐसी है
कुछ ऐसा इसका व्यवहार है
कि अपने ही हाथों मिटने को
हो जाता लाचार है
त्रेता युग हो या द्वापर युग हो
या कोई सरकार हो
मानव ने ही मानव का
सदा किया संहार है
राम-राज्य से डाओ-जोन्स तक
सब बातों का यही सार है
आदमी संतुष्ट रहने से
सदा करता रहा इंकार है
सिएटल,
12 दिसम्बर 2008
=============
सांड = bull
भालू = bear
बेल-आउट = bail-out
स्टॉक्स = stocks
सुनामी =tsunami
डाओ-जोन्स = Dow-Jones Index
Posted by Rahul Upadhyaya at 10:13 AM
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उस रात भी अमावस थी
जब हमने कागज़ी रावण जलाए थे
और बच्चों को बड़े गर्व से बतलाया था
कि देखो ऐसे होती है बुराई पर अच्छाई की जीत
उस रात भी अमावस थी
जब ईंट-गारे की ईमारत जली थी
और हमने कागज़ी बाण चलाए थे
सम्पादक को पत्र लिख कर
कविता लिख कर
लेख लिख कर
परिजनों के साथ फोन पर
दिल की भड़ास निकाल कर
और अब?
क्रिसमस की छुट्टियाँ है
स्कूल भी बंद है
और बच्चों ने कई दिनों से
प्लान बना रखा है
मेक्सिको जाने का
टिकट पहले ही लिए जा चुके हैं
और यहीं तो साल में एक मौका होता है
सबके साथ घूम-फिर आने का
मारीच तो आते रहेंगे
कभी स्वर्ण हिरण बन कर
तो कभी नाव में बैठ कर
अंगरक्षक
जनता को
एक काल्पनिक रेखा के भरोसे
छोड़ कर
रक्षा करते रहेंगे
कभी महाराजाधिराज राम की
तो कभी महामहिम मुख्यमंत्री की
जनता के लुट जाने पर
वे आर्तनाद करेंगे
इधर-उधर
पशु-पक्षियों से
पेड़-पौधों से
पूछ-पूछ कर
समय बर्बाद करेंगे
किसी दूसरे देश से
मदद की मांग करेंगे
मिथकीय शत्रु के
मिट जाने पर भी
वे जनता को
परेशान करेंगे
कभी अग्निपरीक्षा लेंगे
तो कभी सत्ता के लोभ में
जंगल में रोता-बिलखता छोड़ देंगे
सिएटल,
8 दिसम्बर 2008
कुछ दिन पहले मेरा जन्मदिन था
तुमने शुभकामनाएँ भेजी थी
आज लगता है
वे बेमानी थी
आज तुम्हारा जन्मदिन है
और मैं तुम्हें 'विश' नहीं कर सकता
क्यूँकि हमारी दोस्ती में विष भर गया है
मैं फिर भी तुम्हें शुभकामनाएँ भेज रहा हूँ
क्योंकि मुझे हिसाब-किताब बराबर रखने की आदत है
देखो तुम भड़कना नहीं
इस आग को सम्हाल कर रखना
शाम को केक पर मोमबत्ती जलाने में
काम आएगी
और हाँ
तुमने मुझसे
नयी सड़क से
एक कविता की किताब लाने को कहा था
वो मैं ले आया हूँ
लगता है तुम्हें उसकी कोई खास ज़रुरत नहीं है
प्यार, वफ़ा, वादे, शिकवा-शिकायत, रुसवाई, विश्वासघात
यहीं सब कुछ तो है उसमें
और उन सबसे तुम अच्छी तरह वाकिफ़ हो
तुमने उस पर हुए खर्च के भुगतान की भी बात की थी
तो सुनो
किताब के 180
मेट्रो के 11
रिक्शा के 30
कुल मिला कर 221
और झगड़ा हो जाने पर भी
उसे फ़ाड़ कर न फ़ेंक देने की फ़ीस?
उसका अब तुम ही अंदाज़ा लगाओ
अगली बार
किसी से नाता तोड़ो
तो हिसाब-किताब पूरा कर के तोड़ना
सिएटल,
6 दिसम्बर 2008
Posted by Rahul Upadhyaya at 9:36 PM
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Labels: relationship
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:26 PM
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Labels: relationship