Monday, April 20, 2009

वापसी पे मनते दीपोत्सव नहीं

वो घड़ी
वो लम्हा
वो क्षण
मानव के इतिहास में है
स्वर्ण अक्षरों में दर्ज

मस्तिष्क में हैं अंकित
अभी तक उस जूते की छाप
जिसने एक ही कदम में
लिया था ब्रह्माण्ड को नाप

अर्घ देती थी जिसे
शादीशुदा नारी सभी
शिव की शोभा जिसे
कहते थे ज्ञानी-ध्यानी सभी
अच्छी तरह से याद है
दुनिया को
अभी तक वो घड़ी
जब जूतों तले रौंदी गई थी उसकी ज़मीं

लेकिन
वापसी की घड़ी
ठीक से याद नहीं

जो होता है दूर
वो लगता है चाँद
जो होता है पास
नहीं लगता है खास

जो होता है दूर
उसकी आती है याद
जो होता है पास
वो लगता है भार

त्रेतायुग और कलियुग में फ़र्क यही
जानेवाले किये जाते हैं सहर्ष विदा
वापसी पे मनते दीपोत्सव नहीं

सिएटल 425-445-0827
20 अप्रैल 2009

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2 comments:

Udan Tashtari said...

जो होता है दूर
उसकी आती है याद
जो होता है पास
वो लगता है भार


--बिल्कुल सही कहा!! बहुत खूब!

जयंत - समर शेष said...

sach hai...

Udan Tashtari ji bhi sach kahate hain...

~Jayant