वो घड़ी
वो लम्हा
वो क्षण
मानव के इतिहास में है
स्वर्ण अक्षरों में दर्ज
मस्तिष्क में हैं अंकित
अभी तक उस जूते की छाप
जिसने एक ही कदम में
लिया था ब्रह्माण्ड को नाप
अर्घ देती थी जिसे
शादीशुदा नारी सभी
शिव की शोभा जिसे
कहते थे ज्ञानी-ध्यानी सभी
अच्छी तरह से याद है
दुनिया को
अभी तक वो घड़ी
जब जूतों तले रौंदी गई थी उसकी ज़मीं
लेकिन
वापसी की घड़ी
ठीक से याद नहीं
जो होता है दूर
वो लगता है चाँद
जो होता है पास
नहीं लगता है खास
जो होता है दूर
उसकी आती है याद
जो होता है पास
वो लगता है भार
त्रेतायुग और कलियुग में फ़र्क यही
जानेवाले किये जाते हैं सहर्ष विदा
वापसी पे मनते दीपोत्सव नहीं
सिएटल 425-445-0827
20 अप्रैल 2009
Monday, April 20, 2009
वापसी पे मनते दीपोत्सव नहीं
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:49 PM
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Labels: Anatomy of an NRI, intense, new, TG
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2 comments:
जो होता है दूर
उसकी आती है याद
जो होता है पास
वो लगता है भार
--बिल्कुल सही कहा!! बहुत खूब!
sach hai...
Udan Tashtari ji bhi sach kahate hain...
~Jayant
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