Monday, April 26, 2010

इक अरसा हुआ धूप में दाढ़ी बनाए हुए

इक अरसा हुआ धूप में दाढ़ी बनाए हुए
इक दड़बे में घुस के श्रृंगार करते हैं

हमसे बड़ा कालिदास कोई और क्या होगा
रोज अपने ही चेहरे पे तेज धार करते हैं

कहते हैं कि उठा लेगा उठानेवाला एक दिन
और हम हैं कि अलार्म पे ऐतबार करते हैं

पीढियां अक्षम हुई हैं, निधि नहीं जाती संभाले
रोज-रोज नए मॉडल का इंतज़ार करते हैं

हर गलती में हमारा भी कुछ हाथ होगा
इस सम्भावना से हम कहाँ इंकार करते हैं

चलो अच्छा ही हुआ हमने सच सुन लिया
वरना हम तो समझते थे कि हम तुमसे प्यार करते हैं

सिएटल । 425-445-0827
26 अप्रैल 2010
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अलार्म = alarm; मॉडल = model;

Friday, April 16, 2010

मनोदशा

लाल रोशनी के
दो गोलों के पीछे
मैं खुद को इतना सुरक्षित समझता हूँ
कि
60 मील प्रति घंटे की रफ़्तार से चल रही कार की
स्टीयरिंग व्हील पकड़े
मैं
बेगम अख़्तर की
अलसाती हुई ठुमरी
बड़ी तन्मयता के साथ
सुन सकता हूँ


सुरक्षा
असुरक्षा
कल का भय
आज की चिंता
ये सब
मनगढ़ंत हैं
या
परिवेश के जाए हैं


सिएटल । 425-445-0827
16 अप्रैल 2010
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जाए = offsprings

Monday, April 12, 2010

ब्राउनियन मोशन में जीव-सार सारा


झोपड़ी के दीप सा टिमटिमाता तारा
भटकता है नभ में ज्यों भटके शिकारा

भटकना ही जीव का दीन-ओ-धरम है
ब्राउनियन मोशन में जीव-सार सारा

भटकना न होता तो पाषाण होते
न हिलते, न डुलते, न होते बीच धारा


जीवन है जीना तो बहना है निश्चित
जीते जी किसी को न मिलता किनारा

मोक्ष की आस में आँख जो हैं मूंदे
चेतन से जड़ की और जा रहे हैं यारा

सिएटल । 425-445-0827
12 अप्रैल 2010
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ब्राउनियन मोशन =
Brownian Motion

Wednesday, April 7, 2010

कैलेंडर और घड़ी

कैलेंडर है एक
तिथियाँ कई हैं
इनमें स्थित
परिस्थितियाँ कई हैं

कैलेंडर से छोटी
कैलेंडर से बड़ी
दुनिया में नहीं
कोई ऐसी किताब
बारह पन्नों के बीच में
जो सौंप दे सारा जहाँ

बच्चों की छुट्टी
बुआ का ब्याह
ग्वाले का दूध
धोबी की लिस्ट
पड़ोसी का डिनर
मौसी का नम्बर
सोख लेता है सब का सब
खानों में खचा-खच
ये कैलेंडर

इसमें छिपा है
हम सबका हाल
इसे पता है
पग पग की बात

राम का जन्म
रावण का दाह
पितरों का श्राद्ध
होली की आग
गाँधी का जन्म
आज़ादी की रात

अरे!
तो हम कभी गुलाम थे?
परदेसी करते हम पे राज थे?
करते उन्हें हम सलाम थे?

आँखें हमारी ये है खोलता
खून हमारा है खौलता
अपनी किस्मत को हम हैं कोसते
तारीख़ बदलने को हैं दौड़ते
तारीख़ तो बदल सकते नहीं
तारीखें बदल कर रह जाते हैं
महीनों के नाम अदल-बदल कर
संवत् नए चिपकाते हैं

लेकिन
घड़ी की टिक-टिक नहीं बदल पाते हैं
और वो वही की वही टिकी रह जाती है
जहाँ लंदन के आका उसे सेट कर जाते हैं

आज भी ग्रीनविच का दिल इसमें है धड़कता
आज भी काँटे उन्हीं के हैं घूमते
बेड़िया नज़र आती नहीं
मगर हम हथकड़ी उन्हीं की पहन कर हैं घूमते

सिएटल । 425-445-0827
7 अप्रैल 2010
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कैलेंडर = calendar; लिस्ट = list; डिनर = dinner;
नम्बर = number; तारीख़ = history, date;

Monday, April 5, 2010

मैंने मोहब्बत की है

मैंने मोहब्बत की है और अनेकों से की है
जिसकी सज़ा मुझे बरोबर मिली है

कहता था मैं महबूब जिनको
पाता हूँ आज मैं दूर उनको

ऐसा नहीं कि मोहब्बत में कमी थी
बस फ़क़त एक की वो जागीर नहीं थी

दुनिया को मोहब्बत से भली रंजिश लगी है
इसीलिए तो हो एक से ऐसी बंदिश नहीं है

झूठ कहती है दुनिया कि मोहब्बत निभाओ
नियम तो यह है कि जिसे ब्याहो, बस उसे ही चाहो

दिल दिया कुदरत न मुझको
फिर नियम क्यूँ इंसां के मानूँ?
कब कहाँ बैठे उठे ये
किताब पढ़ कर क्यूँ ये जानूँ?

झूठी दुनिया
झूठे लोग
इनके रोके
कब रूका ये रोग

इश्क़ हुआ है
और इश्क़ होगा
एक नहीं
कई बार होगा

सिएटल । 425-445-0827
5 अप्रैल 2010

Friday, April 2, 2010

सोते हैं हम सभी

खोते हैं जब कभी
रोते हैं हम सभी
रटे-रटाए से
तोते हैं हम सभी

इक दिन तो होना है
पाया जो खोना है
फिर भी उदास क्यूँ
होते हैं हम सभी

जग ने ये जाना है
घर ये बेगाना है
निर्वस्त्र हो कर के
सोते हैं हम सभी

खा कर के कसमें
रहते हैं जग में
स्वछंद जीवन क्यों
खोते हैं हम सभी

टीका लगाते हैं
गंगा नहाते हैं
अपने कर्मार्थ को क्यूँ
धोते हैं हम सभी

न तो हम ईसा है
ना ही मसीहा है
सूली का बोझ क्यों
ढोते हैं हम सभी

जीवन तो चलता है
पल-पल पनपता है
जीवन के बीज को
बोते हैं हम सभी

दीपक एक बुझता है
दीपक एक जलता है
दीपक की लौ के
सोते हैं हम सभी

सिएटल । 425-445-0827
2 अप्रैल 2010
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सोता -- नदी की छोटी शाखा

Thursday, April 1, 2010

बदलते ज़माने के बदलते ढंग हैं मेरे


बदलते ज़माने के बदलते ढंग हैं मेरे
नए हैं तेवर और नए ही रंग हैं मेरे

शुद्ध भाषा के शीशमहल में न रख सकोगे कैद मुझे
मैं तुम्हे आगाह कर देता हूँ कि संग संग हैं मेरे

ये तेरी-मेरी भाषा का साम्प्रदायिक तर्क तर्क दो
जैसे सुंदर हैं तुम्हारे वैसे ही सुंदर अंग हैं मेरे

कहीं संकीर्णता का जंग खोखला न कर दे साहित्य को
इसलिए हर महफ़िल में छिड़ते हैं हर रोज़ जंग मेरे

संस्कृत से है माँ का रिश्ता और उर्दू बहन है मेरी
खिलाती-पिलाती है अंग्रेज़ी और बॉस फ़िरंग हैं मेरे

माँ-बहन को एक करना चाहता है 'राहुल'
नासमझ समझेंगे कि ये नए हुड़दंग हैं मेरे

सिएटल । 425-445-0827
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संग (उर्दू) - stone; संग (हिंदी) - with
तर्क (उर्दू) - abandon; तर्क (हिंदी) - arguments
जंग (उर्दू) - war; जंग (हिंदी) - rust