बड़ी बहन जब बढ़ी हो रही थी
माँ को चिंता बड़ी हो रही थी
जब जो चाहे खा ले पी ले
कैसे होगे हाथ इसके पीले?
एक समय थी फूल सी काया
अब खा-खा के फूल रही है!
एक मिली ताई आतातायी
बोली बंद करो दुध-मलाई
सूखी रोटी में सुख है भाई
माँ को बात तुरंत ये भाई
लड़्डू-पेड़ा हलवा-पूड़ी
सब के सब तालों में पड़े थे
जैसे घुन के साथ गेंहू पीसा है
वैसे ही बहन के साथ हम भी पीसे थे
हमने भी एक तरकीब लगाई
एक बढ़ई से दोस्ती बढ़ा कर
बिन ताला तोड़े अलमारी खुलाई
और बड़े शौक से बेढ़ई खाई
जब माँ ने देखा कि बच्चे शैतान हैं निकले
तो तुरत-फ़ुरत फिर एक इश्तेहार निकाला
मिले वर जो हो बी-ए-सी-ए
हो मैनेजर, न हो सुंदर पी-ए
न दारू पीए, न दारू पिलाए
सारी तनख़्वाह घर पे लाए
दूर देस से एक आया पी-के
कहने लगा नहीं आया पी के
वो तो मेरा बस नाम है पी-के
और लगा बखारने जी-के
और मस्का तो वो ऐसा मारे
कि सुबह-शाम लगे पाँव सासू-जी के
कहने लगा मैं इसे खुश रखूँगा
जो ये कहेगी मैं वहीं करूँगा
कसम खाता हूँ रोए-रोए की मैं
विदा के बाद न कभी रोएगी ये
बड़ी लगन से हमने लगन कराए
शादी में खूब पकवान पकाए
दूल्हा-दुल्हन खूब मगन थे
खा-खा के हुए दुगने बदन थे
तब पोल खुल के सामने आई
कि दोनो को प्रिय है बहुत मिठाई
जैसे मिटी मेरी माँ की उलझन
हे ईश्वर मिटे हम सब की उलझन
जैसी दुल्हन वैसा दुल्हा,
मिले सब को हे दु:ख-भंजन
सिएटल । 425-445-0827
24 मई 2010
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बी-ए-सी-ए = BA/CA
पी-ए = PA or Personal Assistant
पी-के = P.K.
जी-के = GK or General Knowledge
Monday, May 24, 2010
बड़ी बहन
Posted by Rahul Upadhyaya at 9:00 PM
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Labels: August Read, fun, TG
Saturday, May 15, 2010
विंडो खुली है और हवा आती नहीं है
कम्प्यूटर की दुनिया मुझे भाती नहीं है
ये ओ-के, ये कैंसल, ये कैसे हैं डायलाग
कहने की छूट जिसमें मुझे दी जाती नहीं है
जला के बचाने की ये उलट-विद्या है कैसी
पी-सी में बर्नर की बात समझ आती नहीं है
ये इंटर, ये इस्केप, ये कीज़ हैं जितनी
कभी भी कोई ताला खोल पाती नहीं हैं
माउस जहाँ है वहाँ निस्संदेह गंदगी भी होगी
लाख लगा लूँ फ़िल्टर, गंदी मेल जाती नहीं है
उनको मिले कम्प्यूटर जिन्हें हैं कम्प्यूटर की तलाश
मुझको तो इसकी संगत रास आती नहीं है
सिएटल । 425-445-0827
15 मई 2010
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विंडो = window; ओ-के = OK; कैंसल = cancel;
डायलाग = dialog; पी-सी = PC; बर्नर = burner;
इंटर = enter; इस्केप = escape; कीज़ = keys
माउस = mouse; फ़िल्टर = filter
Posted by Rahul Upadhyaya at 10:31 PM
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Labels: digital age, Jan Read, TG
Friday, May 14, 2010
मैं लिखता रहा, तुम डिलिट करती रही
मैं लिखता रहा, तुम डिलिट करती रही
मेरी बाते मेरी मेल में सड़ती रही
न बरसी, न गरजी, न निकली कभी
बदली उमंगों की दिल में सिकुड़ती रही
लिखने को लिख गए ज्ञानी-ध्यानी बाते कई
और दुनिया अधकचरे ब्लॉग पढ़ती रही
कवि की कल्पना को कैसे ताले लगे
माँ की सूरत एक सी गढ़ती रही
वो अच्छों को मोक्ष दे, और बुरों को भेज दे
पापियों के बोझ तले पृथ्वी कुढ़ती रही
पृथ्वी जो स्वर्ग बनी तो पापी कहाँ जाएगे?
इसीलिए पर्यावरण की हालत बिगड़ती रही
सिएटल । 425-445-0827
14 मई 2010
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डिलिट = delete; मेल = mail; ब्लॉग = blog
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:57 AM
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Monday, May 3, 2010
यदि सुधरा जो मैं
न ग़म होता है, न वहम होता है
तसव्वुर में मेरे जब मेरा सनम होता है
इंसां हैं सभी और सभी मेहरबान
वो तो दीवारों का दूसरा नाम धरम होता है
यदि सुधरा जो मैं तो बच्चे हो जाएगे बाँझ
क्योंकि अच्छों का दुबारा नहीं जनम होता है
तक़दीर पे अपनी जो करते हैं भरोसा
हाथों से उनके नहीं करम होता है
वो तो प्यार करो तब होती हैं खफ़ा
वरना हसीनाओं का दिल बड़ा नरम होता है
सिएटल । 425-445-0827
3 मई 2010
Posted by Rahul Upadhyaya at 9:44 AM
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Labels: CrowdPleaser