मैं लिखता रहा, तुम डिलिट करती रही
मेरी बाते मेरी मेल में सड़ती रही
न बरसी, न गरजी, न निकली कभी
बदली उमंगों की दिल में सिकुड़ती रही
लिखने को लिख गए ज्ञानी-ध्यानी बाते कई
और दुनिया अधकचरे ब्लॉग पढ़ती रही
कवि की कल्पना को कैसे ताले लगे
माँ की सूरत एक सी गढ़ती रही
वो अच्छों को मोक्ष दे, और बुरों को भेज दे
पापियों के बोझ तले पृथ्वी कुढ़ती रही
पृथ्वी जो स्वर्ग बनी तो पापी कहाँ जाएगे?
इसीलिए पर्यावरण की हालत बिगड़ती रही
सिएटल । 425-445-0827
14 मई 2010
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डिलिट = delete; मेल = mail; ब्लॉग = blog
Friday, May 14, 2010
मैं लिखता रहा, तुम डिलिट करती रही
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:57 AM
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4 comments:
बहुत सुन्दर रचना है ... खास कर ये पंक्तियाँ बहुत पसंद आयी -
न बरसी, न गरजी, न निकली कभी
बदली उमंगों की दिल में सिकुड़ती रही
waah main likhta raha tum delete karti rahi..kya baat...
पृथ्वी जो स्वर्ग बनी तो पापी कहाँ जाएगे?
इसीलिए पर्यावरण की हालत बिगड़ती रही
जो भी कहिये राहुल जी...
मैं झूठ नहीं बोलूँगा. शायद हो सकता है आपके अनुसार ऐसी टिपण्णी करने के लिए ये उपयुक्त स्थान न हो. मगर मैं तो ऐसा ही हूँ जी.
बुरा लगे तो क्षमा चाहूँगा.
मज़ा तो नहीं आया :)
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