तुम सोचती होगी
कि मेरा बुखार उतर गया होगा
तुम्हारा सोचना वाजिब भी है
पिछले आठ महीनों से मैंने तुम्हें फोन जो नहीं किया
और ना ही जन्मदिन की बधाई दी
या नव-वर्ष की
लेकिन
शायद तुम यह नहीं जानती
कि जब दर्द हद से गुज़र जाता है
तो दर्द ही दवा बन जाता है
अब मुझे
न तुम्हारी
न तुम्हारी आवाज़ की
न तुम्हारी तस्वीर की
किसी की भी ज़रूरत नहीं है
अब मैं हूँ तुम
और तुम हो मैं
सुबह से लेकर शाम तक
शाम से लेकर सुबह तक
तुम
हर पल
मेरे साथ हो
हाँ, बाबा, हाँ
सच, और पूरा सच
देखो,
तुम्हारा अहसास
कोई नाक पे रखा चश्मा तो है नहीं
कि रात को सोते वक़्त उसे उतार के रख दूँ!
और हाँ
मैं तुम्हें भूला नहीं
और न ही भूला सकता हूँ
लेकिन गाहे-बगाहे फिर भी याद ज़रूर कर लेता हूँ
उस बुद्धू की तरह
जो चश्मा पहने हुए है
फिर भी चश्मा ढूँढता रहता है
18 जुलाई 2011
सिएटल
Monday, July 18, 2011
तुम सोचती होगी
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:50 PM
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Labels: intense
Saturday, July 16, 2011
आदमी थे हम
आदमी थे हम, संग होने लगे हैं
खून को रंग मान, रंग धोने लगे हैं
वारदातें होती हैं, होती रहेंगी
कह के ज़मीर अपना खोने लगे हैं
अब क्या किसी से कोई कुछ कहेगा
सब अपनी ही लाश खुद ढोने लगे हैं
पढ़-लिख के इतने सयाने हुए हम
कि स्याही में खुद को डुबोने लगे हैं
बाहों में किसी की जब बिलखता है कोई
बंद कर के टी-वी हम सोने लगे हैं
16 जुलाई 2011
सिएटल
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संग = पत्थर
Posted by Rahul Upadhyaya at 4:23 PM
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Labels: news
Wednesday, July 13, 2011
क़हर
पहले भी बरसा था क़हर
अस्त-व्यस्त था सारा शहर
आज फ़िर बरसा है क़हर
अस्त-व्यस्त है सारा शहर
बदला किसी से लेने से
सज़ा किसी को देने से
मतलब नहीं निकलेगा
पत्थर नहीं पिघलेगा
जब तक है इधर और उधर
मेरा ज़हर तेरा ज़हर
बुरा है कौन, भला है कौन
सच की राह पर चला है कौन
मुक़म्मल नहीं है कोई भी
महफ़ूज़ नहीं है कोई भी
चाहे लगा हो नगर नगर
पहरा कड़ा आठों पहर
न कोई समझा है न समझेगा
व्यर्थ तर्क वितर्क में उलझेगा
झगड़ा नहीं एक दल का है
मसला नहीं आजकल का है
सदियां गई हैं गुज़र
हुई नहीं अभी तक सहर
नज़र जाती है जिधर
आँख जाती है सिहर
जो जितना ज्यादा शूर है
वो उतना ज्यादा क्रूर है
ताज है जिनके सर पर
ढाते हैं वो भी क़हर
आशा की किरण तब फूटेंगी
सदियों की नींद तब टूटेंगी
ताज़ा हवा फिर आएगी
दीवारे जब गिर जाएंगी
होगा जब घर एक घर
न तेरा घर न मेरा घर
Monday, July 11, 2011
फ़ेसबुक
दुश्मनी मेरी इससे कोई जाती नहीं है
लेकिन फ़ेसबुक की दुनिया मुझे भाती नहीं है
दीवार पे लिखो, दीवार पे बाँचो
यूँ दीवारों से बातें की जाती नहीं है
एक नहीं, दो सौ नौ फ़्रेंड्स हैं मेरे
कहने को दोस्त, लेकिन कोई साथी नहीं है
विडियो और फोटो में कुछ ऐसा फ़ंसा
कि शब्दों की सही वर्तनी अब आती नहीं है
फ़ेसबुक की दुनिया एक सूखे पेड़ सी है यारो
जिसमें शाख ही शाख है कोई पाती नहीं है
11 जुलाई 2011
सिएटल
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:38 PM
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Labels: digital age