Saturday, June 16, 2012

कलंक


इम्तहान में जिन्हें मिले ज्यादा कल अंक थे
कौन जानता था कि वे मेरे माथे के कलंक थे

जिनके आगे-पीछे हम घूमते भटकते थे
'राजा बेटा, राजा बेटा' कहते नहीं थकते थे
आज वे कहते हैं कि 'माँ-बाप मेरे रंक थे'
कौन जानता था …

ये ठोकते हैं सलाम रोज किसी करोड़पति 'बिल' को
पर कभी भी चुका न सके मेरे डाक्टरों के बिल को
सफ़ाई में कहते हैं कि 'हाथ मेरे तंग थे'
कौन जानता था …

ऊँचा है ओहदा और अच्छा खासा कमाते हैं
खुशहाल नज़र मगर बहुत कम आते हैं
किस कदर ये हँसते थे जब घूमते नंग-धड़ंग थे
कौन जानता था …

चार कमरे का घर है और तीस साल का कर्ज़
जिसकी गुलामी में बलि चढ़ा दिए अपने सारे फ़र्ज़
गुज़र ग़ई कई दीवाली पर कभी न वो मेरे संग थे
कौन जानता था …

देख रहा हूँ रवैया इनका गिन गिन कर महीनों से
कोई उम्मीद नहीं बची है अब इन करमहीनों से
जब ये घर से निकले थे तब ही सपने हुए भंग थे
कौन जानता था …

जो देखते हैं बच्चे वही सीखते हैं बच्चे
मैं होता अगर अच्छा तो ये भी होते अच्छे
बुढ़ापे की लाठी में शायद बोए मैंने ही डंक थे
कौन जानता था …

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Glossary
कलंक = blemish
माथे = forehead
रंक = poor
तंग = tight, as in "budget is tight"
ओहदा = title, position
किस कदर = to what extent
संग = together
रवैया = behavior
करमहीन = good for nothing
भंग = broken
डंक = fangs

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1 comments:

Pankaj Kumar said...

Very Heart Touching. I feel like going India right now after reading this.
Great Work.. Keep it up.