मुझे इस्तेमाल कर के फ़ेंक देना अच्छा लगता है
कितना साफ़-सुथरा सा हो जाता है घर
मैं औरों की तरह नहीं हूँ
कि घर में कबाड़ इकट्ठा किए जा रहे हैं
जैसे कि दूध खतम हो गया
तो बोतल में दाल भर ली
बिस्किट खतम हो गए
तो डब्बे में नमकीन भर लिया
अखबार पुराना हो गया
तो उससे किताब पर कवर चढ़ा लिया
या अलमारी में बिछा दिया
इतना भी क्या मोह?
कब तक पुरानी यादों को ढोता रहे कोई?
मुझे इस्तेमाल कर के फ़ेंक देना अच्छा लगता है
कितना साफ़-सुथरा सा हो जाता है घर
फ़ेंकता भी हूँ तो बड़े एहतियात के साथ
पर्यावरण की चिंता जो है
यहाँ कागज़
यहाँ काँच
यहाँ प्लास्टिक
और यहाँ माता-पिता
एक वक्त ये भी बहुत काम के थे
माँ दूध पिलाती थी
लोरी सुनाती थी
पिता गोद में खिलाते थे
कंधों पे बिठाते थे
और अब
माँ दिन भर छींकती है, कराहती है
पिता रात भर खांसते हैं, बड़बड़ाते हैं
मुझे इस्तेमाल कर के फ़ेंक देना अच्छा लगता है
कितना साफ़-सुथरा सा हो जाता है घर
कितना साफ़-सुथरा सा हो जाता है घर
मैं औरों की तरह नहीं हूँ
कि घर में कबाड़ इकट्ठा किए जा रहे हैं
जैसे कि दूध खतम हो गया
तो बोतल में दाल भर ली
बिस्किट खतम हो गए
तो डब्बे में नमकीन भर लिया
अखबार पुराना हो गया
तो उससे किताब पर कवर चढ़ा लिया
या अलमारी में बिछा दिया
इतना भी क्या मोह?
कब तक पुरानी यादों को ढोता रहे कोई?
मुझे इस्तेमाल कर के फ़ेंक देना अच्छा लगता है
कितना साफ़-सुथरा सा हो जाता है घर
फ़ेंकता भी हूँ तो बड़े एहतियात के साथ
पर्यावरण की चिंता जो है
यहाँ कागज़
यहाँ काँच
यहाँ प्लास्टिक
और यहाँ माता-पिता
एक वक्त ये भी बहुत काम के थे
माँ दूध पिलाती थी
लोरी सुनाती थी
पिता गोद में खिलाते थे
कंधों पे बिठाते थे
और अब
माँ दिन भर छींकती है, कराहती है
पिता रात भर खांसते हैं, बड़बड़ाते हैं
मुझे इस्तेमाल कर के फ़ेंक देना अच्छा लगता है
कितना साफ़-सुथरा सा हो जाता है घर
4 comments:
sihran si paida ho gayi kavita parhkar. magar sachai to yehi hai.
bahut hi sundar rachna..aabhar!
aap ki yeh rachna "mujhe safai pasand hai" uttam rachna hai likhte rahiye...
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