कृत्रिम दीप
और कृत्रिम फूल
कब तक झोंकेंगे
भक्त की आँखों में धूल?
एक न एक दिन हटेगी नज़रों से 'वूल'
और नज़र आयेगा 'नेचर' का 'रूल'
कि जीवन-मरण दोनों के बीच
हैं सुख-दु:ख नवल पौधों के बीज
कभी एक फलेगा तो कभी एक सूखेगा
ये क्रम न रूका है न कभी रो के रूकेगा
माथा टेकने से नहीं मिटते हैं रोग
एक न एक दिन समझ जाएंगे लोग
कि सुख-दु:ख है मन की एक अनुभूति
सभ्य समाज की एक अनिवार्य रीति
वो पल जो हमें देता है सुख
उसी पल में हम खोज लेते हैं दु:ख
बेटा हुआ तो बहुत खुशी हुई
पर साथ ही साथ चिंता भी हुई
कि बढ़ा हो के क्या ये बड़ा बनेगा?
ऊँचा ओहदा क्या पा के रहेगा?
24 अगस्त 2013.
सिएटल । 513-341-6798
और कृत्रिम फूल
कब तक झोंकेंगे
भक्त की आँखों में धूल?
एक न एक दिन हटेगी नज़रों से 'वूल'
और नज़र आयेगा 'नेचर' का 'रूल'
कि जीवन-मरण दोनों के बीच
हैं सुख-दु:ख नवल पौधों के बीज
कभी एक फलेगा तो कभी एक सूखेगा
ये क्रम न रूका है न कभी रो के रूकेगा
माथा टेकने से नहीं मिटते हैं रोग
एक न एक दिन समझ जाएंगे लोग
कि सुख-दु:ख है मन की एक अनुभूति
सभ्य समाज की एक अनिवार्य रीति
वो पल जो हमें देता है सुख
उसी पल में हम खोज लेते हैं दु:ख
बेटा हुआ तो बहुत खुशी हुई
पर साथ ही साथ चिंता भी हुई
कि बढ़ा हो के क्या ये बड़ा बनेगा?
ऊँचा ओहदा क्या पा के रहेगा?
24 अगस्त 2013.
सिएटल । 513-341-6798
3 comments:
"जीवन-मरण दोनों के बीच
हैं सुख-दु:ख नवल पौधों के बीज
कभी एक फलेगा तो कभी एक सूखेगा"
"एक न एक दिन समझ जाएंगे लोग
कि सुख-दु:ख है मन की एक अनुभूति"
यह बात कितनी सच है! जीवन में सुख और दुःख दोनों आते हैं और उनके मिश्रण से ही हमारा inner self बनता है। आपकी यह बात भी सही है कि कयी बार हम खुद ही दुःख खोज लेते हैं। कुछ दुख तो natural responses होते हैं - जैसे काँटा चुभने पर physical pain, किसी अपने का साथ छूटने का दर्द। मगर बहुत से दुखों का कारण हमारी अपनी ambitions और expectations होती हैं। हम realize नहीं करते कि यह दुःख हमारे बनाए हुए हैं - बस हम सुख की कमी महसूस करते रहते हैं। आपने यह बहुत गहरी बात कही है।
एक बात और: इस बार "कृत्रिम" शब्द का अर्थ शब्दकोष में नहीं देखना पड़ा :) इस साल की सबसे पहली कविता "शुभकामनाएं" से याद था - "मैं साल की कृत्रिम सीमाओं को नहीं मानता हूँ" :)
very nice...
bahut badhiya likha hai sir,sanjay from bhopal
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