आज नया है
कल पुराना होगा
इस घर को कल
गिराना होगा
नयी है टेबल
नया है सोफ़ा
इन सबको भी कल
हटाना होगा
टूटेगी छत
गिरेगी दीवार
नींव को भी जड़ से
मिटाना होगा
कपड़ों के रंग
फीके पड़ जाते हैं
कॉलर कहीं-कहीं से
फट जाते हैं
कार का ट्रांसमिशन
बिगड़ जाता है
एक्सीडेंट में एक दिन
काया का कचूमर निकल जाता है
कपड़े
फ़र्नीचर
कार
घर
मैं
तुम
कुछ भी स्थायी नहीं है
कुछ दो साल
कुछ दस साल
कुछ बीस, कुछ पचास
कुछ सौ साल चलते हैं
धराशायी सब होते हैं
फेंक सब दिए जाते हैं
ज़मीं जैसी है वैसी रहती है
आत्मा जैसी है वैसी रहती है
राहुल उपाध्याय । 9 अक्टूबर 2024 । सिएटल
2 comments:
वाह ! क्षण-भंगुर संसार का कटु सत्य !
यही सत्य हम भूल जाते हैं :)
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