Friday, May 16, 2025

नासमझ है समाज

नासमझ है समाज कहता है जो

ख़ुद को बुरा-भला कहता है वो 


किसको पड़ी कैसा है तू 

हँसना है हँस, रोना है रो 


रहता ही क्या कुछ मुझमें मेरा पाप भी जो लेता मैं धो


कई दिन हुए, न कविता हुई 

लिखना ही क्यूँ जब कहना न हो


ये दुख, ये दर्द, कुछ होता नहीं 

यदि एक न होते इंसान ये दो


राहुल उपाध्याय । 16 मई 2025 । सिएटल 





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