नासमझ है समाज कहता है जो
ख़ुद को बुरा-भला कहता है वो
किसको पड़ी कैसा है तू
हँसना है हँस, रोना है रो
रहता ही क्या कुछ मुझमें मेरा पाप भी जो लेता मैं धो
कई दिन हुए, न कविता हुई
लिखना ही क्यूँ जब कहना न हो
ये दुख, ये दर्द, कुछ होता नहीं
यदि एक न होते इंसान ये दो
राहुल उपाध्याय । 16 मई 2025 । सिएटल
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