Friday, November 6, 2009

जहाँ हूँ मैं वहीं उसका ठिकाना है

जहाँ से हम आए हैं
वहीं हमें जाना हैं
ज़मीं से आए हैं
ज़मी में समाना है

रंगीं हो पत्ते
या काले हो बादल
अंत तो सभी का
वही पुराना है

बड़े से आसमां में
मैं ढूंढता था जिसको
टेका जो माथा तो
उसे यहीं पे जाना है

अब गली-गली हाथ फैलाए
मैं भीख मांगूँगा नहीं
क्योंकि कदमों तले मेरे
गड़ा खजाना है


'गर होता वो उपर
तो सोचो आस्ट्रेलिया का क्या होता?
जहाँ हूँ मैं
वहीं उसका ठिकाना है

सिएटल 425-898-9325
6 नवम्बर 2009

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2 comments:

कविता रावत said...

जहाँ से हम आए हैं
वहीं हमें जाना हैं
ज़मीं से आए हैं
ज़मी में समाना है
Bahut achhi lagi kavita. Sabkuch to yahin rah jaata hai lekin phir dekho tera-mera ke pher mein kaise pade rahate hai sabhi. Kash ye isse uthkar sabhi soch paate to duniya kitni khubsurat hoti ...
Badhai sweekare

राजीव तनेजा said...

बहुत बढिया...
हँसते रहो पर एक चित्र पहेली चल रही है...आपका चित्र भी उसमें शामिल किया जा रहा है ..

http:hansteraho.blogspot.com