हाथ में मेरे पचासों लकीरें
एक भी उनमें नहीं है लकी रे
करता न खिदमत
न सहता हुकूमत
एक जो किस्मत होती भली रे
खा के भी हलवा
खा के भी पूड़ी
भूख ये मेरी मिटती नहीं रे
दिखता है जोगी
होती जलन है
खा के भी सूखी रहता सुखी रे
कहता है जोगी
सुन बात मेरी
ना तू अनलकी है ना मैं लकी रे
दूजे की प्लेट पे
आँख जो गाड़े
इंसां वही सदा रहता दुखी रे
सोने की, चांदी की
थाल को छोड़ो
पेट तो मांगे जो उगाती ज़मीं रे
सिएटल । 425-445-0827
9 दिसम्बर 2009
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लकी = lucky
अनलकी = unlucky
Wednesday, December 9, 2009
मेरी भूख
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:28 AM
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1 comments:
बढिया रचना है।सही लिखा है-
दूजे की प्लेट पे
आँख जो गाड़े
इंसां वही सदा रहता दुखी रे
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