Wednesday, December 9, 2009

मेरी भूख

हाथ में मेरे पचासों लकीरें
एक भी उनमें नहीं है लकी रे

करता न खिदमत
न सहता हुकूमत
एक जो किस्मत होती भली रे

खा के भी हलवा
खा के भी पूड़ी
भूख ये मेरी मिटती नहीं रे

दिखता है जोगी
होती जलन है
खा के भी सूखी रहता सुखी रे

कहता है जोगी
सुन बात मेरी
ना तू अनलकी है ना मैं लकी रे

दूजे की प्लेट पे
आँख जो गाड़े
इंसां वही सदा रहता दुखी रे

सोने की, चांदी की
थाल को छोड़ो
पेट तो मांगे जो उगाती ज़मीं रे

सिएटल । 425-445-0827
9 दिसम्बर 2009
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लकी = lucky
अनलकी = unlucky

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1 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

बढिया रचना है।सही लिखा है-

दूजे की प्लेट पे
आँख जो गाड़े
इंसां वही सदा रहता दुखी रे