पहले प्रतीक्षा रहती थी वर्ष के आरम्भ की
क्यूंकि तब डायरी बदली जाती थी
पहले प्रतीक्षा रहती थी वर्षा के आरम्भ की
जो सावन की बदली लाती थी
अब कम्प्यूटर के ज़माने में डायरी एक बोझ है
और बेमौसम बरसात होती रोज है
बदली नहीं बदली
ज़िंदगी है बदली
बारिश की बूंदे जो कभी थी घुंघरु की छनछन
आज दफ़्तर जाते वक्त कोसी जाती हैं क्षण क्षण
पानी से भरे गड्ढे जो लगते थे झिलमिलाते दर्पण
आज नज़र आते है बस उछालते कीचड़
जिन्होने सींचा था बचपन
वही आज लगते हैं अड़चन
रगड़ते वाईपर और फिसलते टायर
दोनो के बीच हुआ बचपन रिटायर
बदली नहीं बदली
ज़िंदगी है बदली
कभी राम तो कभी मनोहारी श्याम
कभी पुष्प तो कभी बर्फ़ीले पहलगाम
तरह तरह के कैलेंडर्स से तब सजती थी दीवारें
अब तो गायब ही हो गए ग्रीटिंग कार्ड भी सारे
या तो कुछ ज्यादा ही तेज हैं वक्त के धारें
या फिर टेक्नोलॉजी ने इमोशन्स कुछ ऐसे हैं मारे
कि दीवारों से फ़्रीज और फ़्रीज से स्क्रीन पर
सिमट कर रह गए हैं संदेश हमारे
जिनसे मिलती थी कभी अपनों की खुशबू
आज है बस वे रिसाइक्लिंग की वस्तु
बदली नहीं बदली
ज़िंदगी है बदली
पहले प्रतीक्षा रहती थी वर्ष के आरम्भ की ...
सिएटल । 425-445-0827
7 जनवरी 2010
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वाईपर = wiper; टायर = tire; रिटायर = retire;
ग्रीटिंग कार्ड = greeting card; टेक्नोलॉजी = technology;
इमोशन्स = emotions; फ़्रीज = fridge;
स्क्रीन = screen; रिसाइक्लिंग = recycling
Thursday, January 7, 2010
वर्ष का आरम्भ
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:24 AM
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5 comments:
its nice.. :)
& very true..
बिल्कुल सही..बेहतरीन!
सुन्दर रचना. तकनोलोजी ने सब कुछ बदल दिया
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आदरणीय राहुल जी अच्छी है आपकी कविता।
बधाई! उस समय मैं अपनी डायरी में कुछ लिख रही थी कुछ विचार जन्में पेश है
एक डायरी जो दी थी पापा जी ने
आज भी मेरे दिल के पास है,
रोज़ ही लिखती हूँ उसमें पर,
फिर भी लिखने की प्यास है ,
जाने क्यों ये मेरे जीवन में खास है।
प्रतिदिन ही ये मुझसे मिलती है,
मेरे दुखड़े सुख के पल सुनती है,
कभी धड़कन पकड़ती है,
कभी स्वप्नों को बुनती है,
आगा पीछा सब कुछ इसे है पता ,
बस माफ ही किए जाती है मेरी हर खता।
इससे मिल मेरा मन फूलों सा महकता है,
ये तो मूक ही रहती है,
पर मेरा दिल चहकता है।
शायद हमें एक ऐसा ही साथी चाहिए,
जो हमारी बात सुने पर
मुँह ना खोले,
जिसे हम अपने सुख --दुख सुना,
कभी भारी मन हो तो रो लें ,
और वो बिना कुछ कहे हमारे
अश्रुओं की माला पिरोता जाए,
न हँसी उड़ाए, न हंगामा खड़ा करे,
ना तिरस्कार करे ,
ना शब्दों को तोले।
बस ये डायरी मेरी बेजुबान साथी है,
इसमें मेरे जज़्बात ,मेरी गलतियां,
मेरे राज़ हैं, ये मेरी थाती है ,
इससे मुझे झूठ नहीं बोलना पड़ता है,
बिन बोले ही समझ जाती है
मुँह नहीं खोलना पड़ता है,
मेरी कलम के साथ इसका बड़ा याराना है,
इन दोनों का सम्बन्ध बड़ा पुराना है।
अब मुझको ही नहीं इसे भी मुझसे प्यार है,
ना बोलूँ तो पँख फड़फड़ाती है,
मुझ संग उड़ने को भी ये तैयार है ,
इसके पृष्ठ ही मेरा आसमां होंगे,
मेरे ख्वाब व माज़ी सब इसके आसरा होंगे,
इसमें लिखे राज बरसों बाद किसी को मिलेंगे,
तब तक हमारे सम्बन्ध ना जाने कितनी शकल धरेंगे,
और ये मेरे रहने तक चलेगा
बरसों बाद मेरा लिखा शायद कोई पढेगा।
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Thank you. A beautiful poem.
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