Thursday, January 7, 2010

वर्ष का आरम्भ


पहले प्रतीक्षा रहती थी वर्ष के आरम्भ की
क्यूंकि तब डायरी बदली जाती थी
पहले प्रतीक्षा रहती थी वर्षा के आरम्भ की
जो सावन की बदली लाती थी

अब कम्प्यूटर के ज़माने में डायरी एक बोझ है
और बेमौसम बरसात होती रोज है

बदली नहीं बदली
ज़िंदगी है बदली

बारिश की बूंदे जो कभी थी घुंघरु की छनछन
आज दफ़्तर जाते वक्त कोसी जाती हैं क्षण क्षण
पानी से भरे गड्ढे जो लगते थे झिलमिलाते दर्पण
आज नज़र आते है बस उछालते कीचड़

जिन्होने सींचा था बचपन
वही आज लगते हैं अड़चन

रगड़ते वाईपर और फिसलते टायर
दोनो के बीच हुआ बचपन रिटायर

बदली नहीं बदली
ज़िंदगी है बदली

कभी राम तो कभी मनोहारी श्याम
कभी पुष्प तो कभी बर्फ़ीले पहलगाम
तरह तरह के कैलेंडर्स से तब सजती थी दीवारें
अब तो गायब ही हो गए ग्रीटिंग कार्ड भी सारे
या तो कुछ ज्यादा ही तेज हैं वक्त के धारें
या फिर टेक्नोलॉजी ने इमोशन्स कुछ ऐसे हैं मारे
कि दीवारों से फ़्रीज और फ़्रीज से स्क्रीन पर
सिमट कर रह गए हैं संदेश हमारे

जिनसे मिलती थी कभी अपनों की खुशबू
आज है बस वे रिसाइक्लिंग की वस्तु

बदली नहीं बदली
ज़िंदगी है बदली

पहले प्रतीक्षा रहती थी वर्ष के आरम्भ की ...

सिएटल । 425-445-0827
7 जनवरी 2010
================
वाईपर = wiper; टायर = tire; रिटायर = retire;
ग्रीटिंग कार्ड = greeting card; टेक्नोलॉजी = technology;
इमोशन्स = emotions; फ़्रीज = fridge;
स्क्रीन = screen; रिसाइक्लिंग = recycling

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5 comments:

Somesh Dhawan said...

its nice.. :)
& very true..

Udan Tashtari said...

बिल्कुल सही..बेहतरीन!

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

सुन्दर रचना. तकनोलोजी ने सब कुछ बदल दिया

Rahul Upadhyaya said...

Comment on email:

आदरणीय राहुल जी अच्छी है आपकी कविता।

बधाई! उस समय मैं अपनी डायरी में कुछ लिख रही थी कुछ विचार जन्में पेश है

एक डायरी जो दी थी पापा जी ने
आज भी मेरे दिल के पास है,
रोज़ ही लिखती हूँ उसमें पर,
फिर भी लिखने की प्यास है ,
जाने क्यों ये मेरे जीवन में खास है।

प्रतिदिन ही ये मुझसे मिलती है,
मेरे दुखड़े सुख के पल सुनती है,
कभी धड़कन पकड़ती है,
कभी स्वप्नों को बुनती है,
आगा पीछा सब कुछ इसे है पता ,
बस माफ ही किए जाती है मेरी हर खता।
इससे मिल मेरा मन फूलों सा महकता है,
ये तो मूक ही रहती है,
पर मेरा दिल चहकता है।

शायद हमें एक ऐसा ही साथी चाहिए,
जो हमारी बात सुने पर
मुँह ना खोले,
जिसे हम अपने सुख --दुख सुना,
कभी भारी मन हो तो रो लें ,
और वो बिना कुछ कहे हमारे
अश्रुओं की माला पिरोता जाए,
न हँसी उड़ाए, न हंगामा खड़ा करे,
ना तिरस्कार करे ,
ना शब्दों को तोले।

बस ये डायरी मेरी बेजुबान साथी है,
इसमें मेरे जज़्बात ,मेरी गलतियां,
मेरे राज़ हैं, ये मेरी थाती है ,
इससे मुझे झूठ नहीं बोलना पड़ता है,
बिन बोले ही समझ जाती है
मुँह नहीं खोलना पड़ता है,
मेरी कलम के साथ इसका बड़ा याराना है,
इन दोनों का सम्बन्ध बड़ा पुराना है।
अब मुझको ही नहीं इसे भी मुझसे प्यार है,
ना बोलूँ तो पँख फड़फड़ाती है,
मुझ संग उड़ने को भी ये तैयार है ,
इसके पृष्ठ ही मेरा आसमां होंगे,
मेरे ख्वाब व माज़ी सब इसके आसरा होंगे,
इसमें लिखे राज बरसों बाद किसी को मिलेंगे,
तब तक हमारे सम्बन्ध ना जाने कितनी शकल धरेंगे,
और ये मेरे रहने तक चलेगा
बरसों बाद मेरा लिखा शायद कोई पढेगा।

Rahul Upadhyaya said...

Comment on email:

Thank you. A beautiful poem.