सारा दिन गुज़र जाता है
और प्यास नहीं लगती है
देख के दुश्मन भी
तन में आग नहीं लगती है
ऐसा भी नहीं कि
मैं एक रोबोट हूँ यारो
कम्बख़्त रोशनी है इतनी
कि आँख नहीं लगती है
जीने के तो वैसे
कई तरीके हैं लेकिन
अपनी ही तबियत
कुछ खास नहीं लगती है
आएगा वो दिन
जब वो ढूंढेगी मुझको
महबूबा मेरी
जो मेरी आज नहीं लगती है
मिलूँगा कभी
तो पूछूँगा जहाँपनाह से
सल्तनत तुम्हारी
क्यों ज़िम्मेदार नहीं लगती है
सिएटल । 425-445-0827
23 मार्च 2010
Tuesday, March 23, 2010
रोशनी है इतनी कि आँख नहीं लगती है
Posted by Rahul Upadhyaya at 5:28 PM
आपका क्या कहना है??
6 पाठकों ने टिप्पणी देने के लिए यहां क्लिक किया है। आप भी टिप्पणी दें।
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6 comments:
nice
बहुत खूब!!
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हिन्दी में विशिष्ट लेखन का आपका योगदान सराहनीय है. आपको साधुवाद!!
लेखन के साथ साथ प्रतिभा प्रोत्साहन हेतु टिप्पणी करना आपका कर्तव्य है एवं भाषा के प्रचार प्रसार हेतु अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें. यह एक निवेदन मात्र है.
अनेक शुभकामनाएँ.
मिलूँगा कभी
तो पूछूँगा जहाँपनाह से
सल्तनत तुम्हारी
क्यों ज़िम्मेदार नहीं लगती है
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इन आँखों को कोई भी ख्वाब नहीं देगा
देखना सल्तनत फिर भी जवाब नहीं देगा
सुन्दर रचना . शुभकामनायें.
उपाध्याय जी, आपकी रचना की पहली पंक्ति ने आपके सृजन तक पहुँचाया...कि रोशनी है इतनी कि आंख नहीं लगती...क्या बात है..मैं तो आपकी रचनाओं का फेन हो गया हूँ...बहुत बढ़िया..बधाई.
ताज़गी भरी रचना.
बहुत अच्छी लगी.
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