Tuesday, March 23, 2010

रोशनी है इतनी कि आँख नहीं लगती है

सारा दिन गुज़र जाता है
और प्यास नहीं लगती है
देख के दुश्मन भी
तन में आग नहीं लगती है

ऐसा भी नहीं कि
मैं एक रोबोट हूँ यारो
कम्बख़्त रोशनी है इतनी
कि आँख नहीं लगती है

जीने के तो वैसे
कई तरीके हैं लेकिन
अपनी ही तबियत
कुछ खास नहीं लगती है

आएगा वो दिन
जब वो ढूंढेगी मुझको
महबूबा मेरी
जो मेरी आज नहीं लगती है

मिलूँगा कभी
तो पूछूँगा जहाँपनाह से
सल्तनत तुम्हारी
क्यों ज़िम्मेदार नहीं लगती है

सिएटल । 425-445-0827
23 मार्च 2010

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6 comments:

Randhir Singh Suman said...

nice

Udan Tashtari said...

बहुत खूब!!

-

हिन्दी में विशिष्ट लेखन का आपका योगदान सराहनीय है. आपको साधुवाद!!

लेखन के साथ साथ प्रतिभा प्रोत्साहन हेतु टिप्पणी करना आपका कर्तव्य है एवं भाषा के प्रचार प्रसार हेतु अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें. यह एक निवेदन मात्र है.

अनेक शुभकामनाएँ.

M VERMA said...

मिलूँगा कभी
तो पूछूँगा जहाँपनाह से
सल्तनत तुम्हारी
क्यों ज़िम्मेदार नहीं लगती है
====
इन आँखों को कोई भी ख्वाब नहीं देगा
देखना सल्तनत फिर भी जवाब नहीं देगा

P.N. Subramanian said...

सुन्दर रचना . शुभकामनायें.

दीनदयाल शर्मा said...

उपाध्याय जी, आपकी रचना की पहली पंक्ति ने आपके सृजन तक पहुँचाया...कि रोशनी है इतनी कि आंख नहीं लगती...क्या बात है..मैं तो आपकी रचनाओं का फेन हो गया हूँ...बहुत बढ़िया..बधाई.

Anonymous said...

ताज़गी भरी रचना.
बहुत अच्छी लगी.