Friday, March 2, 2012

न घाट है न घर है

न घाट है न घर है, कहते महानगर हैं
तारों के जाल में तारें आते न नज़र हैं

बस्ती है कि जंगल, कहना मुश्किल है
आदमियों की खाल में बसते अजगर हैं

आदमी तो आदमी, देवता भी कमाल है
कालीनदार कमरों में दिखे भोले शंकर हैं

आप ही बताईए, ये ऐसी कैसी चाल है?
कि खाते-पीते घर के ही क्यूँ बनते अफ़सर हैं

कहने की बात है, घंटी कहाँ बजती है?
घर्घर रिंगटोन ही हम सुनते घर-घर हैं

राहुल उपाध्याय |  2 मार्च 2012 | दिल्ली 

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2 comments:

पी.एस .भाकुनी said...

न घाट है न घर है, कहते महानगर हैं
तारों के जाल में तारें आते न नज़र हैं..
सुंदर प्रस्तुति...... स:परिवार होली की भी हार्दिक शुभकामनाएं.....

यदाकदा said...

उधेड़ उधेड़ कर काफी अच्चा बन लेते हैं।