Tuesday, December 25, 2012

ऐ दुनिया, तेरे ग़मों का अहसानमंद हूँ मैं

ऐ दुनिया, तेरे ग़मों का अहसानमंद हूँ मैं
कि वस्ल के बाद भी उन्हें बेहद पसंद हूँ मैं


न होते ग़म, न वो ढूँढते खुशियाँ
ग़मों के कोट पे लगा पैबंद हूँ मैं


लेना सांस मैं छोड़ पाता नहीं हूँ
क्या करूँ वक़्त का बड़ा पाबंद हूँ मैं


न सपूत किशन, न राधा बहू है
मैं नंद सा नहीं, रहता सानंद हूँ मैं


लिखने को लिख सकता था शिवसेना पे मैं
पर मंदबुद्धि नहीं, बहुत अकलमंद हूँ मै.


25 दिसम्बर 2012
सिएटल । 513-341-6798

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2 comments:

Anonymous said...

ऐ दुनिया, तेरे ग़मों का अहसानमंद हूँ मैं
कि वस्ल के बाद भी उन्हें बेहद पसंद हूँ मैं - very nice!

Anonymous said...

"लिखने को लिख सकता था शिवसेना पे मैं
पर मंदबुद्धि नहीं, बहुत अकलमंद हूँ मै"

कविता की ending से November की कविता "गलती दोहराने की गलती" फिर पढ़ने को मन किया.