Friday, March 22, 2013

'बर्फ़ी ला' बसंत

बर्फ़ीली हवाओं ने किया
ऐसा कुछ तंग
कि बसंत के शुरू होते ही
हो गया उसका अंत


बर्फ़ छोड़ बर्फ़ी खाए
प्रभु, करो कुछ प्रबंध


फ़ायर प्लेस छोड़-छाड़
फ़ायर करें रंग


पिचकारी भर-भर के हम
रंगें तन-बदन


होली पे हिम नहीं
हो हर हर से मिलन


भांग पिएं, भांग चढ़ें
न रंग में हो भंग


खाए-पीए मौज करें
रहें मस्त मगन


22 मार्च 2013
सिएटल ।
513-341-6798

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3 comments:

Anonymous said...

चिंता न करिए - यह वसंत का अंत नहीं, सर्दी की goodbye थी, कह रही थी कि "कल भी सूरज निकलेगा, कल भी पंछी गायेंगे, सब तुझको दिखाई देंगे, पर हम न नज़र आयेंगे..."

कविता का title "बर्फ़ी ला बसंत" perfect है। बर्फ़ और बर्फ़ी का wordplay होली के लिए एक दम सही है!

Anonymous said...

आपकी 2009 की कविता "होली मानना मना है" भी याद आयी

Anonymous said...

"बर्फ़ छोड़ बर्फ़ी खाए
प्रभु, करो कुछ प्रबंध"

बर्फ़ छोड़ बर्फ़ी खायें या "बर्फ़ी" देखें - आला आला मतवाला बर्फ़ी