Monday, October 23, 2017

बुझता दीपक बूझा के गया

बुझता दीपक

बूझा के गया

भेद सारे जग के

बता के गया


जला था हवा से

बुझा भी हवा से

प्रेमियों की ज़िद को

जता के गया


बनाता है जो भी

मिटाता है वो ही

जो दिखता नहीं वो

दिखा के गया


राख बची है

परछाई कहीं है

धुएँ में सब कुछ

उड़ा के गया


तेल भी है, बाती भी

साबुत सारी माटी भी

बिन ज्योति सूना-सूना

समझा के गया


23 अक्टूबर 2017

सिएटल | 425-445-0827

http://mere--words.blogspot.com/



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1 comments:

कविता रावत said...

एक दिन सबको बुझना है लेकिन उससे पहले उजियारा करो
बहुत सुन्दर