पारूल मध्यम वर्ग से है। काम भी करती है जिससे वेतन मिलता है। घर का काम भी करती है जिससे वेतन नहीं मिलता है। कई कष्ट, कई यातनाएँ सहती है। सास-ससुर-देवरानी सब से। सब अपनी क़िस्मत समझ सह लेती है। ईश्वर में विश्वास है। प्रारब्ध और कर्मों के हिसाब के गुणा-भाग से अच्छी तरह से परिचित है। पति है पर पति से भी कोई आस नहीं। उसे भी वह दोष नहीं देती है। जो है, सो है। जो मिला है उसी में वो ख़ुश है। दुखी कभी नहीं होती है।
ऑफिस का काम मन लगा कर करती है। काम से उसे वह सब मिला जो घरवाले उसे कभी न दे सके। वहाँ उसको इज़्ज़त मिली। सम्मान मिला। यथोचित पदोन्नति भी।
काम के सिलसिले में उसे एक बार पेरिस जाना पड़ा। बाँछें खिल आईं। वह भी तीन महीनों के लिए। इसी बहाने उसे घर के काम से तीन महीने की छुट्टी मिल गई। और हर तरह की आज़ादी भी। जो करना चाहे, कर सकती है। जो खाना चाहे, खा सकती है। जब सोना चाहे, सो सकती है। जब तक सोना चाहे, सो सकती है।
लेकिन जैसा कि अक्सर होता है, जब तक हम सिस्टम से लड़ते नहीं है, हमें उसी सिस्टम में जीना आसान लगता है। हम उसी सिस्टम के पक्षधर बन जाते हैं। उसी में अपनी भलाई समझते हैं। जो खाते आ रहे हैं, वही खाते हैं। जो पहनते आ रहे हैं, वही पहनते हैं।
मुझे याद है जब हम स्कूल से कॉलेज में गए, स्कूल की तरह सबकी कोई निर्धारित सीट नहीं थी। लेकिन हम सब रोज़ एक ही जगह बैठते थे। कॉलेज में यूनिफ़ॉर्म भी नहीं थी। लेकिन हम सब अपने-अपने ढर्रे के ही कपड़े पहनते थे। जो साड़ी पहनती थी, वो साड़ी पहनती थी। जो सलवार सूट पहनती थी, वो सलवार सूट पहनती थी। जो जीन्स, वो जीन्स। लड़कों का भी यही हाल था। जो कुर्ता-पजामा पहनता था, वो कुर्ता-पजामा ही पहनता था। जीन्स वाला जीन्स।
पारूल पेरिस में रही तीन महीने, लेकिन कुछ अलग नहीं किया। न सिगरेट पी। न दारू पी। न चिकन खाया, न फ़िश। न बार गई मौज-मस्ती के लिए।
हाँ, घूमी-फिरी बहुत। सारे म्यूज़ियम नाप डाले। सारे ऐतिहासिक भवनों को आँखों से पी गई। दुकानों पर भी खूब गई। बस आँखें ही सेंकीं। ख़रीदा कुछ भी नहीं। हर नोट का अठारह से गुणा कर के दिल बैठ जाता था।
बस एक स्कर्ट-ब्लाउज़ इतना पसंद आया कि आज बीस बरस बाद भी उसकी एक-एक चीज़ अच्छी तरह से याद है। उसका रंग। उसकी ख़ुशबू। उसका टेक्स्चर। सब का सब तन-मन में समाया हुआ है। बहुत मन किया कि इसे तो ले ही लूँ। ऑफिस वाले पेरिस के हाथ-खर्च और खाने-पीने के लिए कुछ तय रक़म रोज़ाना के हिसाब से दे भी रहे थे। उसमें से पैसे बच भी रहे थे।
उसने स्कर्ट कभी नहीं पहनी थी शादी के बाद। शादी के पहले भी प्रायमरी स्कूल तक ही पहनी। उसके बाद कभी नहीं। न जाने क्यों मन हो आया कि पेरिस में कौन मुझे रोकेगा। पहन कर तो देख लूँ। लेकिन मन की बात मन में ही रह गई। नहीं ख़रीदी तो नहीं ख़रीदी।
अब रिटायर होने के बाद। विधवा होने के बाद। एक दिन उसी स्कर्ट जैसी स्कर्ट ऑनलाइन ऑर्डर कर ही ली। आ गई तो बहुत खुश हुई। बेटी को दिखाई। बेटी को इतनी पसंद आई कि उसने रख ली। अब इस उम्र में कोई कुछ माँग ले तो देने में बहुत अच्छा लगता है। सो दे दी। क़िस्मत देखो। तब से अब तक तीन बार मँगवा चुकी है। लेकिन सब कोई न कोई ले गया।
इस कहानी का अंत ऐसे नहीं होना चाहिए। मेरा उसके ईश्वर से निवेदन है कि हिसाब में कुछ धांधली करें और पारूल को एक बार स्कर्ट-ब्लाउज़ पहनने दें। और हाँ एक सेल्फ़ी भी होनी चाहिए ताकि सबूत रहे कि स्कर्ट पहनी थी कभी प्रौढ़ावस्था में।
राहुल उपाध्याय । 28 दिसम्बर 2023 । अम्स्टर्डम