Wednesday, March 20, 2024

एक अकेला जीवन मेरा

एक अकेला जीवन मेरा 

बाक़ी का बचकाना है 

आते-जाते मौसम सारे 

एक यही सच माना है 


चलते चलते बदरा छाए 

मैंने समझा छाया है 

रूखे-सूखे ही थे अच्छे 

भीगे तो मर जाना है 


अपनों की ये जात बुरी है 

अपनों से क्या पाया है 

जलती-बुझती शम्मा सारी 

मरता तो परवाना है


अपनी-अपनी क़िस्मत सबकी 

कहना घोर छलावा है 

हाथों में जब हाथ नहीं हैं

मन को यूँ बहलाना है


अगला-पिछला ब्याज समेत 

लौटा दूँ ये सोचा है 

आपकी यादें फ़्री में आईं  

उनको कब भिजवाना है


राहुल उपाध्याय ।  20 अप्रैल 2024 । सिएटल

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