Wednesday, December 19, 2007

हम सब 'एक' हैं

स्विच दबाते ही हो जाती है रोशनी सूरज की राह मैं तकता नहीं गुलाब मिल जाते हैं बारह महीने मौसम की राह मैं तकता नहीं इंटरनेट से मिल जाती हैं दुनिया की खबरें टीवी की राह मैं तकता नहीं ईमेल-मैसेंजर से हो जाती हैं बातें फोन की राह मैं तकता नहीं डिलिवर हो जाता हैं बना बनाया खाना बीवी की राह मैं तकता नहीं खुद की ज़रुरते हैं कुछ इतनी ज्यादा कारपूल की चाह मैं रखता नहीं होटले तमाम है हर एक शहर में लोगों के घर मैं रहता नहीं जो चाहता हूं वो मिल जाता मुझे है किसी की राह मैं तकता नहीं किसी की राह मैं तकता नहीं कोई राह मेरी भी तकता नहीं कपड़ो की सलवट की तरह रिश्ते बनते-बिगड़ते हैं रिश्ता यहाँ कोई कायम रहता नहीं तत्काल परिणाम की आदत है सबको माइक्रोवेव में तो रिश्ता पकता नहीं किसी की राह मैं तकता नहीं कोई राह मेरी भी तकता नहीं सिएटल 19 दिसम्बर 2007

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4 comments:

Reetesh Gupta said...

बढ़िया है ...अच्छी लगी आपकी कविताई ...बधाई

Anonymous said...

नित नई कविताएं !!!

Anonymous said...

Bahut Sundar, Rahul! Aapne duniya ke sach ko bahut achhe se express kiya hai.

Shayad isi ko kehte hain "personal freedom", jahan kisi ko kisi ki mahatvata nahin?

Anonymous said...

very apt in this day and world...